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जैन योग : सिद्धान्त और साधना
क्रोधविजय का विधेयात्मक रूप क्षान्ति है। प्रतिकूल परिस्थितियों में भी शान्ति रखना, मन में क्रोध कषाय के आवेग को न उठने देना ही क्षमा है । यही तितिक्षायोग की साधना है।
___ मानव का मस्तिष्क अति संवेदनशील अंग है, थोड़ी भी विपरीत बात से उसमें उथल-पुथल मच जाती है, विक्षोभ पैदा हो जाता है। श्रमण तितिक्षा की साधना से मन को इतना अपने वश में कर लेता है कि प्रतिकूल स्थिति में भी वह भड़कता नहीं, उद्वलित नहीं होता, शान्त बना रहता है ।
(२) मुक्ति का अभिप्राय है-लोभ का, लालच का निग्रह करना ।
सूत्रकृतांग सूत्र में एक शब्द आया है 'सव्वप्पगं' जिसका अर्थ है लोभ; और इसे सर्वव्यापक बताया है। आधुनिक युग के मनोवैज्ञानिक मैकडगल ने भी लोभ का मूल संवेग स्वाग्रह भाव माना है। श्रमण स्वाग्रह भाव के संवेग का विनाश करता है । स्वाग्रह भाव के संवेग से अपनी आत्मिक शान्ति में विक्षेप नहीं होने देता।
(३) आर्जव-आर्जव का अभिप्राय है-मन-वचन-काया की ऋजुता, सरलता । आर्जव धर्म के परिपालन से साधक माया-कपट तथा योगों की विसंवादिता (दोगलापन) का परिमार्जन करता है, उसका अन्तर् और बाह्य एक समान होता है । वह जो मन में विचार करता है, वही कहता है और वैसा ही करता भी है।
योगों की विसंवादिता के परिमार्जन से उसकी आत्मिक शान्ति स्थिर रहती है और आत्मिक शान्ति के कारण योग-विसंवादिता का परिमार्जन होता है । परस्पर इनमें कार्य-कारण भाव है।
इस कार्य-कारण भाव को श्रमण अपनी तितिक्षा की साधना से स्थिर रखता है । जितना ही उसकी तितिक्षायोग की साधना गहरी होगी उतनी ही उसमें सरलता एवं ऋजुता होगी और आर्जव धर्म का परिपालन वह उत्तम भावों से कर सकेगा।
___ इसीलिए भगवान महावीर ने कहा है-सोही उज्जुयभूयस्स धम्मो सुद्धस्स चिट्ठइ-ऋजु अथवा सरल व्यक्ति में धर्म स्थिर होता है ।
(४) माव-मार्दव धर्म का परिपालन करने वाला श्रमण मान कषाय का परिमार्जन करता है। १ सूत्रकृतांग १/३६
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