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तितिक्षायोग साधना १९५ श्रमण जो संयम की साधना करता है, उसका हार्द है-दस श्रमण धर्म । इन दस धर्मों से श्रमण की साधना को चार चाँद लगते हैं, उसकी साधना रत्नराशि के समान जगमगाने लगती है।
आगमों और परवर्ती जैन ग्रंथों में दस विध श्रमणधर्मों का उल्लेख हुआ है । यद्यपि कहीं-कहीं इनके क्रम में भेद मिलता है; किन्तु उनका स्वरूप एक ही है, उसमें समानता है, भेद नहीं है।
स्थानांग सूत्र में उनके नाम इस प्रकार दिये गये हैं
(१) क्षांति (२) मुक्ति (३) आर्जव (४) मार्दव, (५) लाघव, (६) सत्य (७) संयम, (८) तप, (६) त्याग (१०) ब्रह्मचर्य ।
आवश्यकचूणि और तत्त्वार्थसूत्र में इन धर्मों से पहले 'उत्तम' विशेषण लगाया गया है । इस विशेषण का अभिप्राय यह है कि क्षमा आदि तभी धर्म हो सकते हैं जब इनका आचरण उत्कृष्ट भावों से किया जाय ।
वस श्रमण धर्म और तितिक्षायोग (१) शांति अथवा उत्तम क्षमा धर्म का अभिप्राय है क्रोध का निग्रह, क्रोध के निमित्त प्राप्त होने पर भी मन में कलुषता न लाना, शुभ परिणामों द्वारा क्रोध की निवृत्ति करना ।
१. (क) खंती, मुत्ती, अज्जवे, मदवे, लाघवे, सच्चे; संजमे, तवे, चियाए, बंभचेरवासे ।
-स्थानांग १०/७१२ (ख) खन्ती य मदवऽज्जव मुत्ती तव संजमे य बोद्धव्वे । सच्चं सोयं आकिंचण च बंभं च जइधम्मो॥
-स्थानांगवृत्ति पत्र, २८३ (ग) समवायांग, समवाय १० (घ) खन्ती मुत्ती अज्जव मदव तह लाघवे तवे चेव । संजम चियागिऽकरण, बोद्धव्वे बंभचेरे य ॥
-आचार्य हरिभद्र द्वारा उद्धृत प्राचीन गाथा (च) उत्तम खमा, महवं, अज्जवं, मुत्ती, सोयं, सच्चो, संजमो, तवो, अकिंचणत्तणं बंभचेरेमिति ।
-आवश्यकचूणि (छ) उत्तमः क्षमामार्दवावशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिंचन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः ।
-तत्वार्थसूत्र ६/६ (ज) षट्प्राभृत-द्वादशानुप्रेक्षा, श्लोक ७१-८१
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