SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 271
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६४ जैन योग : सिद्धान्त और साधना मनुष्य के जीवन में कठिनाइयाँ, संघर्ष और प्रतिकूल परिस्थितियाँ कदम-कदम पर मुह बाए खड़ी हैं। यदि इन विपरीत स्थितियों से घबड़ाकर व्यक्ति पलायन करने लगे तो एक दिन का जीवन भी नहीं चल सकता। यश के बदले अपयश, लाभ के स्थान पर हानि, असफलता, अपमान, बड़ों से अवहेलना, आदि का क्षण-क्षण में हमें अनुभव होता है, सफर में पैसे खर्च करके भी आदमी कितनी तकलीफ उठाता है, व्यापार में पैसे फंसाकर, भारी जोखिम उठाकर और रात-दिन मेहनत करके भी कभी-कभी भारी हानि उठानी पड़ती है, आफिस में अपने अधिकारी या बॉस की जी-हजूरी करके और अपना कार्य पूरा करके भी कभी-कभी डाँट व अपमान को कड़वी घूट पीनी पड़ती है। विद्यार्थी को जी-तोड़ परिश्रम करने पर भी किसी कारण फेल या थर्ड डिवीजन मिलता है । इस प्रकार की सैकड़ों विपरीत स्थितियाँ, अनचाही मुसीबतें जीवन में निराशा, अनुत्साह और आकुलता का विष घोलती रहती हैं। इन स्थितियों में झझलाकर किसी को कोसना, सरकार या विभाग को गलियाँ देना, अथवा दूसरों को जिम्मेदार ठहराना-एक प्रकार को असहिष्णुता व आकुलता है, इससे हमारी पीड़ा कम नहीं होती, बल्कि मानसिक तनाव, संत्रास और अधिक बढ़ता है, तथा कभी-कभी तो समस्या अधिक उलझ जाती है। - तितिक्षायोग इन विपरीत स्थितियों में भी 'हँसते हँसते जीने की कला' सिखाता है । तन की पीड़ा को मन तक पहुँचने से रोक देता है। एक प्रकार से तितिक्षायोग मन को फायर प्रफ बना देता है, ताकि अभाव व पीड़ाओं की आग से मन संतप्त न हो। आई हुई कठिनाई व बिगड़ी हुई परिस्थितियों में हम सहनशील रहें, उसे बरदाश्त करें और शान्त चित्त से उसके कारणों पर विचार कर उसका प्रतिकार करें—यह शक्ति तितिक्षायोग की साधना से प्राप्त होती है। अतः तितिक्षायोग को साधना गृहस्थ साधक के जीवन में भी अनिवार्य है, उपयोगी है। यह परिस्थिति से धैर्यपूर्वक निपटना सिखाता है। तितिक्षायोग साधना का उत्कर्ष : दश श्रमण धर्म तितिक्षायोग की साधना, श्रमण को सहनशील, सहिष्णु, समताभावी और अभय तो बनाती ही है किन्तु साथ ही साथ उसकी आत्मिक और चारित्रिक उन्नति भी करती है, श्रमण के चारित्रिक विकास का साधन भी बनती है। यह श्रमण के आध्यात्मिक शांति और प्रगति का मार्ग (The way of spiritual peace and progress) है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy