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________________ तितिक्षायोग साधना १६३: भी निर्भयतापूर्वक जीतता है । उस समय वह न मन में दीनता का भाव लाता है और न उन उपसर्गों को अपनी मन्त्र शक्ति अथवा विशिष्ट लब्धियों के बल पर दूर करने का ही प्रयास करता है, वरन् अपनी आत्म-शक्ति से तितिक्षापूर्वक उन पर विजय प्राप्त करता है । उपसर्ग तीन प्रकार के होते हैं- देवकृत, मनुष्यकृत और तिर्यंचकृत | देव कई कारणों से श्रमण पर उपसर्ग करते हैं - पूर्वभव के र विपाक से (२) श्रमण की परीक्षा लेने के उद्देश्य से (३) कभी हास्य ( कौतुक ) से भी देव उपसर्ग करते हैं (४) कभी पूर्व राग के कारण भी देव श्रमण को अनुकूल उपसर्ग करते हैं । मनुष्यकृत उपसर्ग भी इन्हीं कारणों से होते हैं । " तिर्यंचकृत उपसर्ग - भय से, द्वेष से आहार के लिए तथा अपनी सन्तान रक्षा के कारण होते हैं । इन तीनों के अतिरिक्त आत्म-संवेदन रूप उपसर्ग और होते हैं । वे चार प्रकार के हैं - ( १ ) अंगों को परस्पर रगड़ने से ( २ ) अंगुलि आदि अंगोपांगों के चिपक जाने या कट जाने से (३) रक्त संचार के रुक जाने से अथवा ऊपर से गिर जाने से तथा (२) वात-पित्त-कफ के प्रकुपित हो जाने से । इस तरह अनेक प्रकार के उपसर्गों को श्रमण अपने आत्म-बल के द्वारा जीतता है । उपसर्ग और परोषह : श्रमण की तितिक्षा की कसौटी उपसर्ग तथा परीषह कैसे भी क्यों न हों, सबके सब श्रमण की तितिक्षा की - सहनशीलता और समभाव की कसौटी हैं । यदि श्रमण इन्हें समभावपूर्वक जीत लेता है तो वह विजयी हो जाता है और यदि कहीं आकुल व्याकुल हो गया, मस्तिष्क में ईर्ष्या-द्वेष के संस्कार उदबुद्ध हो गये तो वह अपनी साधना से, अपने गौरवपूर्ण पद से विचलित हो जाता है । श्रमण द्वारा परीषह और उपसर्गों की विजय उसकी तितिक्षायोग की साधना है । यह साधना जितनी ही बलवती होती है श्रमण उतनी ही सरलता और सहजता से उपसर्ग- परीषहों पर विजयी हो जाता है, उसकी साधना चमक उठती है । जिस प्रकार कसौटी पर खरा उतरा सोना सर्वजनआदरणीय हो जाता है उसी प्रकार तितिक्षायोग में निष्णात साधक भी पूजनीय हो जाता है । गृहस्थ साधक के जीवन में तितिक्षायोग तितिक्षायोग की साधना सिर्फ गृहत्यागी साधक योगी के लिए नहीं है, किन्तु गृहस्थयोगी के लिए भी इसका बहुत महत्त्व तथा उपयोग है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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