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जैन योग : सिद्ध और साधना
नहीं करता, अपितु उन्हें अपनी कर्मनिर्जरा में सहायक समझकर उपकारी हो मानता है । इस प्रकार वह प्रतिकूल परिस्थितियों में भी शान्त रहता है ।
याचना परीषह पर विजय प्राप्त करना विनम्रता और अहंकार भाव के विसर्जन की साधना है । श्रमण को सभी वस्तुएँ याचना से ही प्राप्त हो पाती हैं । अतः जीवनोपयोगी वस्तुओं के लिए उसे सद्गृहस्थ से याचना करनी ही पड़ती है । और याचना अभिमान त्याग तथा हृदय की ऋजुता एवं सरलता के अभाव में हो नहीं पाती । अतः याचना परीषह जय का आशय ही श्रमण की ऋजुता है ।
याचना करने पर भी यह सम्भव है कि आवश्यक वस्तु मिले और न भी मिले । लाभ और अलाभ दोनों ही स्थितियों में श्रमण सम रहता है, हर्षशोक नहीं करता ।
यों तो श्रमण की दिनचर्या तथा तपोसाधना ऐसी है कि साधारणतया उसे कोई रोग नहीं हो पाता, फिर भी पूर्वकृत कर्म-दोष के कारण अथवा पथ्य-अपथ्य आहार के कारण यदि कभी कोई रोग हो भी जाय तो पीड़ा-चिन्ता करके आर्तध्यान नहीं करता, वह सावद्य ( - सदोष ) चिकित्सा का अभिनन्दन भी नहीं करता, अनाकुल भाव से सहज शान्त बना रहता है । शयन करते समय अथवा मार्ग में चलते समय श्रमण को तृण-स्पर्श हो जाय, काँटे, शूल आदि चुभ जायें तो वह उस तृण की तीखी चुभन से व्याकुल नहीं होता, अपितु समभाव में रहता है ।
श्रमण स्नान नहीं करता । गरमियों में पसीना आता है, उस पर मैल जम जाता हैं, धूल आदि उड़कर भी जम जाती है, किन्तु श्रमण उस मैल की पीड़ा से व्यथित नहीं होता ।
वस्तुतः देह के प्रति श्रमण का निर्ममत्व होता है । उसकी दृष्टि आत्मकेन्द्रित होती है, शरीर - केन्द्रित नहीं ।
इसी प्रकार साधक घोर तप करके भी यह सोचकर व्यथित नहीं होता कि मुझे दिव्यज्ञान क्यों नहीं प्राप्त हो रहा है । न वह अपनी श्रद्धा से ही डगमगाता है । यदि उसे विशिष्ट ज्ञान हो, उसकी तर्कणा शक्ति प्रबल हो तो उसका अहंकार नहीं करता ।
उपसर्ग विजय
परीषहों के साथ उपसर्गों का चोली-दामन का सा साथ है। जिस प्रकार श्रमण परीषहों पर विजय प्राप्त करता है उसी प्रकार वह उपसर्गों को
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