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जैन योग : सिद्धान्त और साधना
रहते हैं, उनकी चंचलता तभी समाप्त होती हैं जब उनकी प्रवृत्ति अन्तमुखी हो जाती है, चेतना के सहज-सरल प्रवाह का सम्पर्क पाते ही मन और इन्द्रियाँ शान्त हो जाती हैं । यह शान्ति ही तितिक्षायोग है।
(८) तप-तप है शरीर पर मन का नियन्त्रण करने एवं वीतराग बनने की साधना । जब यह साधना श्रमण का सहज स्वभाव बन जाती है तब वह तप धर्म बन जाती है । उत्तम भावों से तप का आचरण, तपधर्म है।
इस तपधर्म के आचरण मेंकर्मनिर्जरा तीव्र गति से होती है, आत्मशान्ति प्राप्ति होती है और मुक्ति निकट आती है।
तप का हार्द वीतराग भाव की वृद्धि और फल आत्म-स्वरूप की प्राप्ति है। स्वरूप स्थित आत्मा शान्त-प्रशान्त होता है।
(६) त्याग-सुख और शान्ति का साधन त्याग है । यह त्याग आन्तरिक परिग्रह-कषाय आदि तथा बाह्य परिग्रह-दोनों प्रकार के परिग्रहों का किया जाता है।
___ श्रमण जितना-जितना त्याग करता है, उतना-उतना वह शान्त और सुखी होता जाता है। त्यागधर्म के द्वारा वह तितिक्षायोग की साधना करता है।
(१०) ब्रह्मचर्य-ब्रह्मचर्य का अभिप्राय है-(ब्रह्म अर्थात् शुद्ध आत्मभाव तथा चर्य का अर्थ है-रमण करना)-शुद्ध आत्मभाव में रमण करना।
इसका बाह्य रूप अथवा स्थूल रूप काम-भोग विरति है।
काम-भोगों को इच्छा, चित्त की चंचलता का कारण बनती है, मन में विभिन्न प्रकार के आवेग-संवेग और संकल्प-विकल्प उठते हैं, भोगोपभोगों की सामग्री प्राप्त करने को व्यक्ति बेचैन हो उठता है और न मिलने पर आकुलव्याकुल हो जाता है।
श्रमण काम-भोगों से पूर्णतः विरत होकर सभी प्रकार की मानसिक आकुलताओं से रहित हो जाता है, उसका मन-मानस शान्त हो जाता है।
मन को आवेग-संवेगों से क्षुब्ध न होने देना तितिक्षायोग की साधना है।
१ तप का विस्तृत वर्णन 'तपोयोग' नामक अध्याय में किया गया है ।
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