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जैन योग : सिद्धान्त और साधना
इस व्रत के पाँच अतिचार हैं - ( ५ ) अप्रत्यवेक्षित दुष्प्रत्यवेक्षित शय्या संस्तारक - बैठने के स्थान को भली-भाँति न देखना । (२) अप्रत्यवेक्षित दुष्प्रत्यवेक्षित उच्चार- प्रस्रवण भूमि - मल-मूत्र त्याग करने की भूमि को भली-भाँति न देखना । (३) अप्रमाजित दुष्प्रमाजित शय्या - संस्तारक- - बैठने के स्थान की भलीभाँति प्रमार्जना ( सफाई स्वच्छता) न करना । (४) अप्रमाजित दुष्प्रमार्जित उच्चर- प्रात्रवण भूमि - मल-मूत्र त्याग करने के स्थान की भली-भाँति प्रमार्जना न करना । (५) सम्यक् अननुपालनता - पौषधोपवास का भली-भाँति पालन न करना, आत्मध्यान, स्वाध्याय आदि के बजाय सांसारिक बातों का चिन्तन करना, संकल्प-विकल्प और राग-द्वेष करना ।
(४) अतिथि संविभाग व्रत
नैतिकतापूर्ण तरीकों से उपार्जित धन से उपलब्ध सामग्री में से अतिथि के लिए समुचित विभाग करना अतिथि संविभाग है । सद्गृहस्थ का यह बारहवाँ और अन्तिम व्रत है ।
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अतिथि वह होता है, जिसके आने की कोई निश्चित तिथि न हो । ऐसे अतिथि उत्कृष्ट तो निग्रन्थ श्रमण-साध्वी होते हैं और मध्यम व्रतधारी तथा सम्यक्त्वी श्रावक होते हैं । इनके अतिरिक्त अन्य दीन-हीन- अपंग अभावग्रस्त व्यक्ति भी होते हैं, जिनकी आवश्यकतापूर्ति भी सद्गृहस्थ अपना सहयोग देकर करता है ।
निर्ग्रन्थ साधु-साध्वियों को वह भक्तिभावपूर्वक औषध, पथ्य, आहारवस्त्र आदि का दान देता है और श्रावक-श्राविकाओं का स्वागत-सत्कार वह साधर्मिक बन्धु मानकर करता है तथा उनकी आवश्यकतानुसार अपनी शक्ति सामर्थ्य के मुताबिक सहयोग देता है । इनके अतिरिक्त वह सभी प्राणियों को अनुकम्पा भाव से दान देता है । इस प्रकार सद्गृहस्थ दान की गंगा बहाता है ।
सामाजिक दृष्टि से तो यह व्रत महत्त्वपूर्ण है ही; किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से भी इसका महत्त्व कम नहीं है; क्योंकि इसके द्वारा मनुष्य में त्यागवृत्ति आती है, उसकी धन साधन-सामग्री आदि अपने अधिकार की वस्तुओं में मोह-ममता कम होती है, आसक्ति छूटती है । इससे धर्म- मार्ग निर्बाध रूप से चलता है । श्रमण-श्रमणी की अनिवार्य आवश्यकताएं सद्गृहस्थ द्वारा पूरी हो जाने से वे अपनी संयम यात्रा निश्चिन्ततापूर्वक पूरी करते हैं ।
इस व्रत के पाँच अतिचार हैं - ( १ ) सचित्त निक्षेप-अचित्त आहार को
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