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योग की आधारभूमि : श्रद्धा और शील [१] १२३ (२) देशावकाशिक व्रत
यह दूसरा शिक्षाव्रत है । इसमें छठे दिशा परिमाण व्रत में ग्रहण की हुई मर्यादाओं को और भी संकुचित किया जाता है । उदाहरणस्वरूप, किसी ने पूर्व दिशा में जाने की जीवन भर की सीमा १०० किलोमीटर रखी; किन्तु इतनी दूर वह प्रतिदिन जाता नहीं । अतः इस व्रत में वह इस सीमा को और कम, यथा - २,४,५ किलोमीटर तक घटा सकता है ।
इस व्रत के पाँच अतिचार हैं- (१) आनयन प्रयोग - मर्यादित क्षेत्र से बाहर की वस्तुएँ मँगवाना । (२) प्रेष्य प्रयोग - मर्यादित क्षेत्र से बाहर किसी वस्तु को भेजना । ( ३ ) शब्दानुपात - मर्यादित क्षेत्र से बाहर स्वयं तो न जाना किन्तु शब्द - संकेत द्वारा काम निकाल लेना । (४) रूपानुपात - अपना रूप दिखा कर मर्यादा से बाहर क्षेत्र में कोई काम करवाना । ( ५ ) पुद्गल प्रक्षेप-मर्यादित क्षेत्र से बाहर कंकर आदि फेंककर अपना अभिप्राय प्रगट करके कार्य
करवाना |
(३) पौषधोपवास व्रत
पौषध का अर्थ है - अपनी आत्मा को पोषना - खुराक देना, यह पोषना धर्माचार्य के समीप धर्मस्थानक में ही सम्भव होता है; और उपवास का अर्थ है - भोजन का त्याग । उपवासपूर्वक धर्मस्थान में रहकर आत्मचिन्तन, धर्मध्यान करना पौषधोपवास है । यह एक अहोरात्र ( २४ घन्टे - पहले दिन के सूर्योदय से दूसरे दिन के सूर्योदय तक) का होता है । यह दूज, पंचमी, अष्टमी, एकादशी, चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा - पर्व तिथियों के दिन किया जाता है । २ अष्टमी और २ चतुर्दशी ( शुक्ल पक्ष की और कृष्ण पक्ष की ) तथा १ अमावस्या और १ पूर्णिमा - इस प्रकार एक मास में छह पौषध करने का शास्त्रों में विधान मिलता है ।
पौषध में श्रावक चार प्रकार का त्याग करता है - ( १ ) शृंगार- विलेपन, स्नान आदि (२) अब्रह्मचर्य (३) आहार आदि (४) घर तथा व्यापार सम्बन्धी सभी सांसारिक कार्य ।
द्रव्य और
पौषध व्रत में गृहस्थ साधक नियमित काल मर्यादा तक भाव से आत्म-साधना, स्वाध्याय, ध्यान आदि धार्मिक क्रियाएँ करता है । इससे उसके द्रव्य-रोग ( शरीर सम्बन्धी रोग) तथा भाव - रोगों (कर्मों) का नाश होता है । साधक की आत्मा निर्मल होती है, आत्म-शक्ति बढ़ती है, ध्यान (धर्मध्यान) की योग्यता आती है और परीषह ( अकस्मात आने वाले शारीरिक एवं मानसिक कष्ट) सहने की क्षमता बढ़ती है ।
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