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१२२ जैन योग : सिद्धान्त और साधना सावद्य (पापमय) प्रवृत्तियों का त्याग कर देता है और निरवद्य (शभ) प्रवृत्ति करता है। इस व्रत का अभ्यास करते-करते श्रावक का सम्पूर्ण जीवन समतामय हो जाता है।
इस व्रत का काल एक बार में एक मुहूर्त (४८ मिनट) है । साधक अपनी सुविधा और क्षमता के अनुसार एक दिन में अपनी इच्छा के मुताबिक कितनी भी सामायिकें कर सकता है।
सामायिक व्रत के पाँच अतिचार हैं-(१) मनोदुष्प्रणिधान-मन में बुरे या अशुभ विचार आना । (२) वचन दुष्प्रणिधान-वचन का दुरुपयोग करना, कठोर अथवा असत्य भाषण करना। (३) काय दुष्प्रणिधान-शरीर से सावध प्रवृत्ति करना, स्थिर न रखना। (४) स्मृत्यकरण-सामायिक की स्मृति न रखना, समय पर न करना। (५) अनवस्थितता-सामायिक को अस्थिर होकर करना, अथवा शीघ्रता से करना, निश्चित विधि के अनुसार न करना।
निर्दोष सामायिक के लिए चार प्रकार की शुद्धि आवश्यक है। इन शुद्धियों का साधक विशेष रूप से ध्यान से रखता है।
(१) द्रव्य-शुद्धि-सामायिक के उपकरण, साधक का अपना शरीर, वस्त्र आदि साफ और शुद्ध हों। श्वेत रंग निर्मलता और सात्त्विकता का प्रतीक है, इसका प्रभाव मन पर भी पड़ता है, उसमें भी निर्मल भाव आते हैं, अतः श्वेत वस्त्र धारण करके ही सामायिक करनी चाहिए।
(२) क्षेत्र-शुद्धि-सामायिक का स्थान साफ हो, वहाँ गन्दगी आदि न हो, डांस-मच्छर आदि की बाधा न हो, कोलाहल न हो। दूसरे शब्दों में शांत, एकान्त एवं स्वच्छ स्थान में सामायिक करनी चाहिए।
(३) काल-शुद्धि-दिन और रात के किसी भी समय सामायिक की जा सकती है। समय के लिए कोई विशेष नियम नहीं है, फिर भी साधक को चाहिए कि सामायिक के लिए ऐसा समय चुने, जिसमें घर-गृहस्थी तथा व्यापार सम्बन्धी किसी काम से बाधा न पड़े, मन स्थिर रह सके । इसलिए प्रातःकाल का समय सामायिक के लिए अधिक उपयुक्त रहता है।
(४) भाव-शुद्धि-सामायिक साधना में भावशुद्धि अति आवश्यक और महत्त्वपूर्ण है। भाव के बिना कोई भी क्रिया फलदायी नहीं होती। सामा. यिक भी लौकिक इच्छा, कामना से नहीं करनी चाहिए; इसका ध्येय साधक को आत्मशुद्धि रखना चाहिए।
इन चार प्रकार की शुद्धियों से सामायिक की साधना में तेजस्विता आती है।
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