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________________ योग की आधारभूमि : श्रद्धा और शील [१] १२१ आर्तध्यान है और क्र र विचार रौद्रध्यान । इन विचारों से व्यर्थ की हिंसा होती है। (२) प्रमादाचरित-शुभ कार्यों में आलस्य करना, असावधानीपूर्वक विभिन्न प्रकार की प्रवृत्ति करना और अशुभ कार्यों को करना। (३) हिंस्रप्रदान-ऐसे उपकरण किसी को देना जिन से हिंसा की जा सके। (४) पापकर्मोपदेश-हिंसा, झठ, चोरी आदि पापों का लोगों को उपदेश देना, नये-नये उपाय सुझाना, प्रेरणा देना। अनर्थदण्डविरमण व्रत में साधक इन चारों प्रकार के पाप कर्मों का त्याग कर देता है। अनर्थदण्डविरमण के पाँच अतिचार हैं-(१) कन्दर्प-विकार बढ़ाने वाले वचन बोलना, सुनना या वैसी चेष्टाएँ करना । (२) कौत्कुच्य-भांडों के समान हाथ-पैर फेंकना, नाक-मुंह-आँख आदि मटकाना, विकृत चेष्टाएँ करना। (३) मौखर्य-वाचालता, बढ़ा-चढ़ाकर बातें करना, अपनी शेखी बघारना । (४) संयुक्ताधिकरण-बिना आवश्यकता के ही हिंसक हथियारों का संग्रह करना, बन्दूक और कारतूस तथा तीर और कमान आदि को संयुक्त करके रखना । (५) उपभोग-परिमोगातिरेक-उपभोग-परिभोग की वस्तुओं और सामग्री का आवश्यक से अधिक संग्रह करना । शिक्षाव्रत शिक्षा का अभिप्राय अभ्यास है। जिस प्रकार विद्या का बार-बार अभ्यास किया जाता है, उसी प्रकार जिन व्रतों का पुनः-पुनः अभ्यास किया जाता है वे शिक्षाव्रत कहलाते हैं। शिक्षाव्रतों की विशेषता यह है कि वे बार-बार ग्रहण किये जाते हैं और पुनः-पुनः उनका अभ्यास किया जाता है। इनकी काल मर्यादा जीवन भर की नहीं होती। शिक्षानत चार हैं। (१) सामायिक व्रत सामायिक शब्द 'सम+आय+इक' इन तीन शब्दों के योग से बना है । 'सम' का अर्थ समता है और 'आय' का अर्थ लाभ है । जिस क्रियाविशेष से समताभाव की उपलब्धि होती है, आत्मा में शान्ति तथा कषायों के आवेगों उपशमन होता है, उसे सामायिक कहते हैं। - सामायिक व्रत का धारी साधक सभी जीवों (त्रस और स्थावर) पर समभाव रखता है। जब तक वह सामायिक करता है, सभी प्रकार की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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