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१८ जैन योग : सिद्धान्त और साधना
(६) संमिन्नश्रोत–सम्पूर्ण शरीर से सुनने की क्षमता तथा सभी इन्द्रियों द्वारा एक-दूसरी इन्द्रिय का कार्य करने का सामर्थ्य ।
(७) अवधिलब्धि-अवधिज्ञान-रूपी (स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण वाले) पदार्थों के भूत-भविष्य और वर्तमान तीनों कालों की पर्यायों को जानने की क्षमता।
(८) ऋजुमतिलब्धि-दूसरे के मनोगत विचारों को सामान्य रूप से जानने की योग्यता । यह लब्धि मनःपर्यवज्ञानी को प्राप्त होती है।
(E) विपुलमतिलब्धि-यह लब्धि भी मनःपर्यवज्ञानी को प्राप्त होती है । इस लब्धि द्वारा योगी साधक दूसरों के मनोगत सूक्ष्म भावों को भी जान लेता है।
(१०) चारणलब्धि-इस लब्धि के दो भेद हैं-(१) जंघा-चारण और (२) विद्याचारण । इस लब्धि वाले योगी को आकाश में गमनागमन करने की शक्ति प्राप्त हो जाती है।
(११) आशीविषलब्धि-इस लब्धिधारी योगी को शाप देने तथा अनुग्रह करने की शक्ति प्राप्त हो जाती है।
(१२) केवललब्धि-यह सर्वोत्कृष्ट लब्धि है। यह योगी को चार घातिया कर्मों (दर्शनावरण, ज्ञानावरण, मोहनीय और अन्तराय) के सर्वथा क्षय से प्राप्त होती है । इस लब्धि का धारक मनुष्य सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, वीतराग हो जाता है। वह तीनों लोकों और तीनों कालों की सब बातें जानता है। लोकालोक के सम्पूर्ण द्रव्य-पदार्थ-तत्त्व उसको हस्तामलकवत् हो जाते हैं। वह अनन्तवीर्य का धारक हो जाता है और अनन्त सुख में रमण करता है।
(१३) गणधरलब्धि-इस लब्धि के धारक योगी को तीर्थंकर के प्रधान शिष्य गणधर पद की प्राप्ति होती है।
(१४) पूर्वधरलब्धि-इस लब्धि का धारक साधक चौदह पूर्वो का ज्ञान अन्तमुहूर्त (४८ मिनट से कम समय) में प्राप्त कर लेता है।
(१५) अर्हत्लग्धि-इस लब्धि द्वारा साधक को अर्हत् पद की प्राप्ति होती है।
(१६) चक्रबर्ती लब्धि-इस लब्धि द्वारा मनुष्य को चक्रवर्ती पद की प्राप्ति होती है। चौदह रत्न, नव निधान और छह खण्ड पृथ्वी के स्वामी को चक्रवर्ती कहा जाता है ।
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