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योगजन्य लब्धियाँ ६६ (१७) बलदेवलब्धि-बलदेव लब्धि के द्वारा बलदेव पद की प्राप्ति होती है।
(१८) वासुदेवलब्धि-इस लब्धि द्वारा वासुदेव पद की प्राप्ति होती है । वासुदेव अद्धचक्री होते हैं। उनका राज्य तीन खण्ड पृथ्वी पर होता है।
(१६) क्षीर-मधु-सपिरानवलब्धि-क्षीर का अर्थ है दूध, मधु का शहद और सर्पि का घी । इस लब्धि के धारक योगी के वचन दूध के समान मधुर, मधु के समान मीठे और घी के समान स्निग्ध हो जाते हैं। अर्थात् सुनने वालों को बहुत ही प्रिय लगते हैं।
(२०) कोष्ठकलब्धि-जिस प्रकार कोष्ठागार में भरा अनान सुरक्षित रहता है, उसी प्रकार इस लब्धि के धारक साधक की स्मृति में गुरुमुख से निकले वचन संचित एवं सुरक्षित रहते हैं, वह उन वचनों को दीर्घकाल में भी नहीं भूलता।
(२१) पवानुसारिणीलब्धि-इस लब्धि से सम्पन्न योगी श्लोक का एक ही पद सुनकर उसके आगे या पीछे के पदों को अर्थात् सम्पूर्ण श्लोक को जान लेता है।
(२२) बीजबुद्धिलब्धि-इस लब्धि का धारक साधक किसी भी ग्रन्थ (शास्त्र), मन्त्र आदि का बीजाक्षर मात्र सुनकर अश्रु त पदों एवं अर्थों को भी जान लेता है।
(२३) तेजोलब्धि-तेजोलब्धिसम्पन्न साधक का तेजस् शरीर इतना तीव्र और बलशाली होता है कि वह अपने शरीर से तेजोलेश्या निकाल . सकता है। तेजोलेश्या के पुद्गल अत्यधिक प्रकाशयुक्त और ज्वलनशील होते हैं। वे जिस स्थान पर प्रक्षिप्त होते (गिरते) हैं, उसे भस्म कर देते हैं। उत्कृष्ट तेजोलेश्यालब्धिसम्पन्न साधक १६ देशों (लगभग आधे से अधिक भारत देश) को भस्म कर सकता है।
. (२४) आहारकलब्धि-यह लब्धि पूर्वधर साधकों को प्राप्त होती है। जब उन्हें किसी तत्त्व के विषय में शंका हो जाती है और समीप ही उनके गुरु, श्रु तकेवली अथवा तीर्थंकर नहीं होते, तब वे इस लब्धि का प्रयोग करते हैं। __इस लब्धि के प्रयोग से साधक आहारक समुद्घात करके अपने शरीर के दायें कन्धे से एक हाथ लम्बा पुतला निकालते हैं। वह पुतला तीर्थंकर भगवान के पास जाता है । तीर्थंकर के दर्शन करके लौट आता है और पुनः साधक के शरीर में समा जाता है । इस क्रिया से साधक की शंका का समाधान हो जाता है।
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