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________________ जैन योग : सिद्धान्त और साधना (२५) शीतललेश्यालब्धि - यह लब्धि तेजोलब्धि से विपरीत स्वभाव की होती है । तेजोलब्धि ज्वलनशील और भस्मक होती है; जबकि यह शीतलतादायक है | १०० इस लब्धि से सम्पन्न साधक किसी आर्तप्राणी अथवा तेजोलेश्या के कारण जलते हुए प्राणियों के प्रति करुणाशील होकर, इस लब्धि का प्रयोग करता है, भस्म होने से उनकी रक्षा करता है । यह लब्धि भी तैजस् शरीर से ही उत्पन्न होती है । किन्तु इसके परमाणु गोशीर्ष चन्दन अथवा हिम के समान शीतलतादायक और प्राणियों के लिए सुखदायी होते हैं । (२६) वैयिलब्धि - इस लब्धि के प्रभाव से साधक अपने अनेक रूप बना सकता है, तथा एक ही समय पर विभिन्न स्थानों पर दिखाई दे सकता है, एवं अन्य लोगों को विभिन्न प्रकार के दृश्य भी दिखा सकता है । (२७) अक्षीणमहानसलब्धि - इस लब्धि के प्रभाव से साधक सैकड़ोंहजारों व्यक्तियों को एक ही पात्र से भोजन कराके उनकी क्षुधा तृप्ति कर सकता है; फिर भी उस पात्र में भोजन उतना का उतना ही रहता है; वह भोजन तभी समाप्त होता है, जब साधक स्वयं भोजन करके तृप्त हो जाता है । (२८) पुलाकलब्धि - इस लब्धि से सम्पन्न साधक चक्रवर्ती की सेना को भी पराजित करने में सक्षम होता है । लब्धियाँ अनेक हैं और उनके विभिन्न रूप- स्वरूप तथा शक्ति-सामर्थ्य हैं । ये २८ लब्धियां तो लब्धियों का संक्षिप्त दिग्दर्शन मात्र है । वर्गीकरण की दृष्टि से इन लब्धियों के तीन वर्ग किये जा सकते हैं - ( १ ) ज्ञानलब्धियाँ, (२) शरीरलब्धियाँ तथा (३) पदलब्धियाँ । - इनमें क्रमश: – ७, ८, ६, १२, २०, २१, २२ ये ज्ञानलब्धियाँ हैं । शरीरलब्धियाँ हैं— १, २, ३, ४, ५, ६, १०, ११, १६, २३, २४, २५, २६, २७, २८ । पदलब्धियाँ हैं - १३, १४, १५, १६, १७, १८ । किन्तु इतना सत्य है कि ये सभी लब्धियाँ साधक को संयम और तपः साधना से प्राप्त होती हैं । लब्धियों की शक्तिरूप अवस्थिति साधक योगी के तेजस् शरीर में होती है और इनको अभिव्यक्ति बाहर होती है । वह अभिव्यक्ति ही अन्य लोगों को दिखाई देती है । जब भी योगी इन लब्धियों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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