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________________ २८ जैन योग : सिद्धान्त और साधना (२) विषय-साम्य-जैनदर्शन और योगसूत्र में विषय-निरूपण में भी काफी साम्य परिलक्षित होता है। जैसे पाँच यमों का वर्णन', सोपक्रम-निरुपक्रम कर्म का स्वरूप', आदि-आदि । (३) प्रक्रिया-साम्य- दोनों दर्शनों में प्रक्रिया-साम्य भी है। धर्म-धर्मी का स्वरूप-विवेचन त्रिगुणात्मक (उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य) लगभग एक-सा बताया गया है । सांख्यदर्शन की दार्शनिक पृष्ठभूमि से प्रभावित होकर योगदर्शन ने वस्तु को कूटस्थनित्य माना है। जबकि जैनदर्शन परिणामी-नित्य मानता है । सिर्फ इतना-सा ही अन्तर है, बाकी सब प्रक्रिया समान है। इस विवेचन और उद्धरणों से स्पष्ट है कि योगदर्शन सर्वाधिक प्रभावित जैनदर्शन से ही हुआ है । दार्शनिक पृष्ठभूमि को अलग रख दें (क्योंकि यह सांख्यदर्शन के आधार पर है) तो यम, योगविभूति, प्रक्रिया, योग से प्राप्त होने वाली लब्धियाँ आदि बातों में जैनदर्शन का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। जैन योग को विशेषताएं जैन योग का केन्द्रबिन्दु स्व-स्वरूपोपलब्धि है। जहाँ योग एवं अन्य दर्शनों ने जीव का ब्रह्म में लीन हो जाना, योग का ध्येय निश्चित किया है, वहाँ जैन दर्शन स्व-आत्मा की पूर्ण स्वतन्त्रता और पूर्ण विशुद्धि योग का ध्येय निश्चित करता है। जैन दृष्टि के अनुसार योग का अभिप्राय सिर्फ चेतना का जागरण ही नहीं है, वरन् चेतना का ऊर्वारोहण है । इसका कारण यह है कि जैनदर्शन ने आत्मा को स्वभावतः ऊर्ध्वगमन-स्वभावी माना है। ___ जैनदर्शन प्रत्येक वस्तु एवं विधा को द्रव्य और भाव दोनों दृष्टियों से देखता हैपरीक्षा करता है। इसीलिए प्राणायाम में यह श्वास-नियमन एवं १ (क) दशवकालिक सूत्र, अध्ययन ४ (ख) पातंजल योगसूत्र २/३१ २ (क) आवश्यकनियुक्ति ६५६, विशेषावश्यक भाष्य ३०६१, तत्वार्थसूत्र (भाष्य) २/५२ (ख) पातंजल योगसूत्र (भाष्य) एवं व्यास भाष्य ३/२२, ३ (क) तत्वार्थसूत्र ५/२६ (ख) पातंजल योगसूत्र ३/१३-१४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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