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अतः वृत्तिसंक्षय ही मुख्य योग है और पूर्व सेवा से लेकर समता पर्यन्त के सभी धर्मव्यापार साक्षात् किंवा परम्परा से योग के उपायभूत होने से योग कहलाते हैं। तब इसका फलितार्थ यह हुआ कि जैन-संकेत के अनुसार वृत्तिसंक्षय और पातञ्जल दर्शन के सिद्धान्तानुसार असंप्रज्ञात ही मुख्य योग है। कारण कि इसी को हीवृत्तिसंक्षय किंवा असंप्रज्ञात को ही-मोक्ष के प्रति साक्षात्-अव्यवहित-कारणता प्रमाणित होती है। इसलिये साक्षात् मोक्षसाधक धर्मव्यापार इस जैनयोग लक्षण से किंवा 'चित्तवृत्तिनिरोध' रूप पातञ्जल योग लक्षण से लक्षित होने वाला वास्तविक योग वृत्तिसंक्षय या असंप्रज्ञात ही है । इसी योग में आध्यात्मिक विकास को पराकाष्ठा प्राप्त होती है। परन्तु इस अवस्था तक पहुंचने के लिये साधक को प्रथम और कई प्रकार के साधनों का अनुष्ठान करना पड़ता है । ये साधन भी मुख्य योग के साधक होने से योग नाम से अभिहित किये जाते हैं । प्रकृत में ये पूर्वोक्त अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता, ये चार हैं।
महर्षि पतञ्जलि के योगलक्षण का अन्तर्भाव प्रथम जो यह कहा गया है कि आचार्य हरिभद्रसूरि ने योग के इन अध्यात्मादि पाँच भेदों में ही महर्षि पतञ्जलि के संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात योग को अन्तभुक्त करा दिया है, उसका सारांश इस प्रकार है:
अध्यात्म, भावना, ध्यान और समता, इन चार योगों में तो संप्रज्ञात नामक योग का अन्तर्भाव होता है और वृत्तिसंक्षय नाम के पांचवें योगभेद में असंप्रज्ञात-योग का समावेश होता है । तात्पर्य कि संप्रज्ञात ध्यान और समता रूप' है तथा असंप्रज्ञात वृत्तिसंक्षयरूप है । संप्रज्ञात-समाधि में राजस तामस वृत्तियों का सर्वथा निरोध होकर केवल सत्त्वप्रधान प्रज्ञाप्रकर्षरूप वृत्ति का उदय होता है और असंप्रज्ञात-समाधि में सम्पूर्ण वृत्तियों का क्षय होकर शुद्ध समाधि से आत्मस्वरूप का अनुभव होता है ।
जैन संकेतानुसार यह असंप्रज्ञात समाधि दो प्रकार की है--सयोग केवलिकालभावी और अयोगकेवलिकालभावी। इनमें प्रथम तो विकल्प और ज्ञान रूप मनोवृत्तियों और उनके कारणभूत ज्ञानावरणादि कर्मों के निरोध-क्षय-से उत्पन्न होती है
और दूसरी सम्पूर्ण शारीरिक चेष्टारूप वृत्तियों और उनके कारणभूत औदारिकादि शरीरों के क्षय से प्राप्त होती है । पहली में कैवल्य और दूसरी में निर्वाणपद की प्राप्ति होती है । इस प्रकार पतञ्जलि के संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात का उक्त अध्यात्मादि योगपञ्चक में अन्तर्भाव निष्पन्न हो जाता है।
१. 'संप्रज्ञातोऽवतरति ध्यानभेदेऽत्र तत्त्वतः' । (१५, योगावतार द्वा०) २ 'असंप्रज्ञातनामा तु संमतो वृत्तिसंक्षयः । (२१ यो० द्वा.)
३. 'इह च द्विधाऽसंप्रज्ञातसमाधिः, सयोगकेवलिकालभावी अयोगकेवलिकालभावी च । तत्राद्यो मनोवृत्तीनां विकल्पज्ञानरूपाणां तद्बीजस्य ज्ञानावरणाद्युदयरूपस्य
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