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( ४२ ) इसके अतिरिक्त उपाध्याय यशोविजयजी ने तो अकेले वृत्ति संक्षययोग में ही इन दोनों संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात योगों का अन्तर्भाव कर दिया है। उनके विचारानुसार आत्मा की जो स्थूल-सूक्ष्म चेष्टाएँ हैं वे ही वृत्तियाँ हैं और उनका कारण कर्म-संयोग की योग्यता है, अतः आत्मा की स्थूल-सूक्ष्म चेष्टाएँ और उनके हेतुभूत कर्म-संयोग की योग्यता के अपगम अर्थात् ह्रास-क्रमशः हानि-को वृत्तिसंक्षय कहते हैं । यह वृत्तिसंक्षय ग्रन्थिभेद से आरम्भ होकर अयोगकेवली नाम के चौदहवें गुणस्थान में सम्पूर्ण होता है । इसमें आठवें (अप्रमत्त) से बारहवें (क्षीणमोह) गुणस्थान तक में प्राप्त होने वाले शुक्लध्यान के प्रथम के दो भेदों-पृथक्त्ववितर्क-सविचार तथा एकत्ववितर्क अविचार में संप्रज्ञात-योग का अन्तर्भाव हो जाता है। कारण कि -~-संप्रज्ञातयोग, निवितर्कविचारानन्दास्मिता निर्भासरूप ही है, अतः वह पर्यायरहित शुद्धद्रव्यविषयक शुक्लध्यान में अर्थात् एकत्ववितर्काविचार में अन्तभुक्त हो जाता है। और असंप्रज्ञात-योग केवलज्ञान की प्राप्ति से लेकर निर्वाण-प्राप्ति तक में आ जाता है । अर्थात् तेरहवें (सयोगी) और चौदहवें (अयोगी) गुणस्थान में असंप्रज्ञात-योग का अन्तर्भाव हो जाता है । इन दोनों गुणस्थानों में ज्ञानावरणादि चारों घाति-कर्मों का सर्वथा क्षय हो जाने से उत्पन्न कैवल्य-केवलज्ञानदशा--में कर्म-संयोग की योग्यता है और उससे उत्पन्न होने वाली चेष्टारूप वृत्तियों का समूल नाश हो जाता है। यही सर्ववृत्तिनिरोधरूप असंप्रज्ञात-योग है । एवं उसको जो संस्कारशेष कहा गया है वह भवोपग्राही कर्म के सम्बन्धमात्र की अपेक्षा से समझना चाहिये । सारांश कि तेरहवें गुणस्थान में भवोपग्राही अर्थात् अघाती कर्म का सम्बन्धमात्र शेष रह जाता है । यही संस्कार है । उसी की अपेक्षा से असंप्रज्ञात-योग को संस्कारशेष कहा है,
निरोधादुत्पद्यते । द्वितीयस्तु सकलाशेषकायादिवृतीनां तद्बीजानामौदारिकादिशरीररूपाणामत्यन्तोच्छेदात् सम्पद्यते' ।
(यो. वि. व्या. श्लोक. ४३१) १. द्विविधोऽप्ययमध्यात्मभावना-ध्यान-समता-वृत्तिक्षयभेदेन पञ्चधोक्तस्य योगस्य पञ्चभेदेऽवतरति । वृत्तिक्षयो हि आत्मनः कर्मसंयोगयोग्यतापगमः, स्थूल सूक्ष्मा ह्यात्मनश्चेष्टावृत्तयः तासां मूलहेतुः कर्मसंयोगयोग्यता, सा चाकरणनियमेन ग्रन्थिभेदे उत्कृष्टमोहनीयबन्धव्यवच्छेदेन तत्तद्गुणस्थाने तत्तत्प्रकृत्यात्यानीकबन्धव्यवच्छेदस्य हेतुना क्रमशोः निवर्तते । तत्र पृथक्त्ववितर्कसविचारैकत्ववितर्काविचाराख्यशुक्लध्यानभेदद्वये संप्रज्ञातः समाधिः वृत्त्यर्थानां सम्यग् ज्ञानात् "निर्वितर्क विचारानन्दास्मितानिर्भासस्तु पर्यायविनिमुक्तः शुद्ध दव्यध्यानाभिप्रायेन व्याख्येयः । "क्षपकणिपरिसमाप्तो केवलज्ञानलाभस्त्वसंप्रज्ञातः समाधिः, भावमनोवृत्तीनां ग्राह्य ग्रहणाकारशालिनीनामवग्रहादिक्रमेण तत्र सम्यक परज्ञानाभावात् । अत एव भावमनसा संज्ञाभावात् द्रव्यमनसां च तत्सद्भावात् केवली नोसंज्ञीत्युच्यते । संस्कारशेषत्वं चात्र भवोपग्राहिकर्मांशरूपसंस्कारापेक्षया व्याख्येयम् । मतिज्ञानभेदस्य संस्कारस्य तदा मूलत एव विनाशात् । इत्यस्मन्मत निष्कर्ष इति दिक्' । (पातञ्ज. यो. सू. वृत्ति १।१८)
२. 'विरामप्रत्ययाभ्यासपूर्वः संस्कारशेषोऽन्यः' (यो. १/१८) अर्थात् सर्ववृत्ति
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