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________________ ६८ बन योष : सिद्धान्त और साधना लगना ही विनियोग चित्त-शुद्धि कहा जाता है। कल्याण भावनाओं की वृद्धि का प्रयत्न ही विनियोग है।' योग के अनुष्ठान योग-साधना की सिद्धि के लिए अनुष्ठान (क्रियाएँ) आवश्यक हैं, क्योंकि क्रिया के बिना सिद्धि की प्राप्ति सम्भव हा नहीं है। अनुष्ठान के पाँच प्रकार हैं-(१) विषानुष्ठान, (२) गरानुष्ठान, (३) अननुष्ठान, (४) तद्धतु अनुष्ठान, (५) अमृतानुष्ठान । इनमें से प्रथम तीन अनुष्ठान राग, मोह आदि भावों से युक्त होने के कारण लौकिक हैं, अतः मोक्षमार्ग की अपेक्षा असदनुष्ठान हैं। अन्तिम दो अनुष्ठानों में रागादि भावों का अल्प-अंश होता है तथा इन अनुष्ठानों में साधक की इच्छा संसार-सुखों की प्राप्ति की नहीं होती, अतः इन्हें सदनुष्ठान कहा जाता है। (१) विष-अनुष्ठान-इस अनुष्ठान को करते समय साधक की इच्छा सांसारिक सुखों को प्राप्त करने की होती है । यश, कीर्ति, इन्द्रिय-सुख, धन आदि की प्राप्ति उसका लक्ष्य होता है । राग आदि भावों की अधिकता के कारण यह अनुष्ठान विष-अनुष्ठान है, क्योंकि सांसारिक सुखों की इच्छा मोक्ष-प्राप्ति में विषतुल्य मानी गई है। (२) गरानुष्ठाल-'गर' शनैः शनैः मारने वाला विष होता है । जब साधक के हृदय में स्वर्ग-सुखों की अभिलाषा रहती है, तो उसके द्वारा किया जाने वाला अनुष्ठान गरानुष्ठान कहलाता है। क्योंकि स्वर्ग-सुखों की इच्छा भी स्वर्ग-सुख भोगने के बाद निम्न गतियों का कारण बनती है। (३) अननुष्ठान-जो धार्मिक क्रियाएँ अथवा अनुष्ठान बिना उपयोग के, विवेकहीन होकर गतानुगतिक रूप में, लोक परम्परा का पालन करते हुए, लोगों की देखा-देखी की जाती हैं, वे अननुष्ठान हैं । दूसरे शब्दों में इन्हें भावशून्य द्रव्य अनुष्ठान भी कहा जा सकता है। (४) तरतु अनुष्ठान-मोक्ष प्राप्ति की अभिलाषा से जो शुभ क्रियाएँधार्मिक व्रत-नियम आदि की जाती हैं, वे तद्धतु अनुष्ठान कहलाती हैं। १ षोडशक ३/७-११ २ विषं गरोऽननुष्ठानं तद्धतुरमृतं परम् । गुर्वादिपूजानुष्ठानमपेक्षादिविधानतः ।। -योगबिन्दु १५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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