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जैन योग का स्वरूप ६६ यद्यपि राग का अंश यहाँ भी विद्यमान रहता है। किन्तु प्रशस्त राग होने से वह परम्परा से मोक्ष का कारण है। इसलिए यह अनुष्ठान सदनुष्ठान है।
(५) अमृतानुष्ठान-साधक की जो क्रियाएँ आत्म-भावपूरित और वैराग्य भाव से की जाती हैं, वे अमृतानुष्ठान हैं । इस अनुष्ठान साधक की वृत्ति-प्रवृत्ति मोक्षोन्मुखी होती है ।'
योग के पांच भेव जैन योग में योग साधना के लिए पांच साधन स्वीकार किये गये हैं(१) स्थान, (२) ऊर्ण, (३) अर्थ, (४) आलम्बन और (५) अनालम्बन । इन साधनों के आधार पर योग के भी पाँच भेद हो जाते हैं।
(१) स्थान-स्थान का अभिप्राय आसन है । आसनों के विषय में जैन आचार्यों का कोई विशेष आग्रह नहीं रहा है। बस, इतना ही है कि जिस किसी भी आसन से साधक अधिक देर तक ध्यानस्थ रह सके, चित्त और शरीर को स्थिर रख सके, वही आसन उसके लिए उचित है । वह कोई भी आसन हो सकता है, यथा-पद्मासन, सुखासन, सिद्धासन, खड्गासन आदिआदि।
__(२) ऊर्ण-योग-साधना के दौरान सूत्र-संक्षिप्त शब्द समवाय का पाठ किया जाता है तथा उनके स्वर, मात्रा, अक्षर, ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत आदि का ध्यान रखकर जो उपयोगपूर्वक उच्चारण किया जाता है, उसे ऊर्ण कहा जाता है । इस साधन को वर्ण योग भी कह सकते हैं।
(३) अर्थ—सूत्रों के अर्थ को समझना तथा उनका शुद्ध उच्चारण करना।
(४) आलम्बन-मन की एकाग्रता के लिए बाह्य प्रतीकों का आलम्बन लेना।
(५) अनावलम्बन-जब साधक बाह्य आलम्बनों को छोड़कर सिर्फ आत्मचिन्तन में लीन हो जाता है, तब अनालम्बन योग कहलाता है । इस स्थिति में साधक का मन एकाग्र हो जाता है और उसे आत्मस्वरूप की प्रतीति होने लगती है। अनावलम्बन योग की चरमावस्था में योग की प्रक्रिया सम्पूर्णता को प्राप्त हो जाती है।
१ योगबिन्दु १५६-१६० २ योगविंशिका २
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