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__ जैन योम का स्वरूप ६७ बन जाता है। यहाँ उसकी योग साधना पूर्ण हो जाती है। आगे अयोग अवस्था प्राप्त कर वह सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाता है।
चित्त-शुद्धि के प्रकार जैन योग के अन्तर्गत धर्म-व्यापार के रूप में अष्टांग योग' का वर्णन भी हआ है। इसके क्रम में पाँच प्रकार की चित्त-शुद्धि का विवरण भी दिया गया है। इससे क्रिया शुद्धि होती है और इनको सही ढंग से पालन करने से साधक की प्रवृत्ति धार्मिक अनुष्ठानों की ओर हो जाती है। चित्त-शुद्धि के पाँच प्रकार हैं
(१) प्रणिधान, (२) प्रवृत्ति (३) विघ्नजय, (४) सिद्धि और (५) विनियोग ।
(१) प्रणिधान-अपने आचार-विचार में अविचलित रहते हुए सभी जीवों के प्रति राग-द्वेष न रखनो, प्रणिधान नामक चित्त-शुद्धि है। स्वार्थी, दम्भी, दुराग्रही लोगों के प्रति भी साधक को दुर्भावना नहीं रखनी चाहिए।
(२) प्रवृत्ति-इसमें साधक निर्दिष्ट योग साधनाओं में मन को प्रवृत्त करता है। दूसरे शब्दों में वह विहित अथवा गृहीत व्रत-नियमों तथा अनुष्ठानों का सम्यकतया पालन करता है।
(३) विघ्नजय-व्रत-नियमों का पालन करते समय अथवा योग साधना के दौरान आने वाले विघ्नों, कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करना विघ्नजय क्रिया शुद्धि कहलोता है।
(४) सिद्धि-सम्यग्दर्शन प्राप्त होने के साथ ही साधक को आत्मानुभव होने लगता है । समताभाव आ जाने से साधक का चित्त चन्दन के समान शीतल हो जाता है, कषायजन्य चंचलता अल्प रह जाती है । इसी को सिद्धि रूप चित्त-शुद्धि के नाम से अभिहित किया गया है।
(५) विनियोग-सिद्धि के उपरान्त साधक का उत्तरोत्तर आत्म-विकास होता जाता है, उसकी धार्मिक वृत्तियों में दृढ़ता, क्षमता, ओज और तेज आ जाता है, उसकी सोधना ऊर्जस्वी हो जाती है । धार्मिक वृत्तियों में चित्त का
१ योगप्रदीप ५१-५२ । २ प्रणिधिप्रवृत्तिविघ्नजयसिद्धिविनियोग भेदतः प्रायः ।
धर्म राख्यातः शुभाशयः पंचधाऽत्र विधो ।।
-षोडशक ३/६
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