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________________ ६६ जैन योग : सिद्धान्त और साधना गुजरता है, वे चार हैं - ( १ ) अपुनर्बन्धक, (२) सम्यग्दृष्टि, (३) देशविरति और (४) सर्वविरति । " अनबंधक स्थिति में मिथ्यात्व दशा में रहते हुए भी साधक विनय, दया, वैराग्य आदि सद्गुणों की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहता है ।" इस स्थिति में वह ग्रन्थिभेद करने में सक्षम होता है । यह ग्रन्थि मिथ्यात्व की होती है, जिसका वह भेदन करता है । ग्रन्थि-भेद के अनन्तर सम्यग्दृष्टि की स्थिति प्रारम्भ होती है । इसमें साधक सांसारिक प्रपंचों में रहता हुआ भी मोक्षाभिमुख होता है । दूसरे शब्दों में वह जीव संसार में रहते हुए भी अन्तरंग से मुक्ति के उपायों के. विषय में विचार किया करता है । यथार्थ तत्त्वों और देव गुरु-धर्म के प्रति उसकी श्रद्धा निश्चल होती है, उसकी दृष्टि शुद्ध और यथार्थग्राहिनी होती है । इसीलिए उसे भावयोगी भी कहा जाता है । 3 जब वह सम्यग्दृष्टि जीव अथवा भावयोगी अहिंसा, सत्य, अचौर्य, स्वदारसन्तोष और परिग्रहपरिमाण रूप अणुव्रत दिशा- परिमाण, उपभोगपरिभोग- परिमाण और अनर्थदण्डविरत रूप गुणव्रत; तथा सामायिक. देशाव"काशिक, प्रोषधोपवास और अतिथि संविभाग रूप शिक्षाव्रत ग्रहण कर लेता है तब उसकी स्थिति देशविति की हो जाती है, वह मोक्ष मार्ग की ओर एक कदम और आगे बढ़ा देता है । इसके उपरान्त वह और आगे बढ़कर सर्वविरति की भूमिका पर पहुँचता है । वहाँ वह हिंसा आदि सभी पापों का पूर्ण रूप से त्याग कर देता है और आत्मा में लीन रहता है । आत्म-साधना करते हुए वह कर्मों की निर्जरा करके सर्वज्ञ-सर्वदर्शी १ योगशतक १३-१६; योगबिन्दु १०२, १७७-७८, २५३,३५१-५२ २ भवाभिनन्दि दोषाणां प्रतिपक्षगुणैर्युतः । वर्द्धमान गुणप्रायो, पुनर्बन्धको मतः ॥ ३ भिन्नग्रन्थेस्तु यत् प्रायो मोक्ष चित्तं भवे तनु । तस्य तत्सर्व एवेह योगो योगो हि भावतः ॥ न चेह ग्रन्थिभेदेन पश्यतो भावमुत्तमम् । इतरेणाकुलस्यापि तत्र चित्तं न जायते ।। ४ योगबिन्दु ३५२-३५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only - योगबिन्दु १७८ - योगबिन्दु २०३, २०५ www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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