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३८० जैन योग : सिद्धान्त और साधना
अविकार हैं, अनन्त सुख में लीन हैं, अरुज हैं, अपुनर्जन्मा हैं, शाश्वत हैं आदि-आदि ।
ate सोपान में साधक सिद्ध के स्वरूप का ध्यान करता है । अपने दर्शन केन्द्र और फिर सम्पूर्ण शरीर से बाल सूर्य के समान निर्मल ज्योति के प्रस्फुटन और विकीर्णन को साक्षात देखता है, ज्ञान नेत्रों से देखता - जानता है और अनुभव करता है ।
इस सम्पूर्ण प्रकिया में साधक लाल रंगमयी सम्पूर्ण सृष्टि को देखता है। लाल रंग प्रमाद और आलस्य को कम करता है, अतः साधक में उल्लास और उत्साह जागता है, जड़ता का नाश होकर स्फूर्ति आती है । लाल वर्ण, दर्शन केन्द्र और 'णमो सिद्धाणं' पद- इन तीनों का संयोग आन्तरिक दृष्टि को जागृत एवं विकसित करने का अनुपम साधन है । अक्षरों को दीर्घ और सूक्ष्म करने से यह आन्तरिक दृष्टि और भी तीव्रता से विकसित होती है ।
यह ' णमो सिद्धाणं' पद की साधना है । णमो आयरियाणं
इस पद का ध्यान विशुद्धि केन्द्र ( कण्ठस्थान) पर मन को एकाग्र करके किया जाता है । इस पद की साधना दीप शिखा के समान पीत वर्ण (पीले रंग ) में की जाती है ।
इसकी साधना भी चार सोपानों में की जाती है ।
प्रथम सोपान में साधक पीत वर्णमयी 'ण' अक्षर का ध्यान करता हुँ । उस समय वह प्रत्यक्ष देखता है कि इस अक्षर की पीत प्रभा से सम्पूर्ण संसार सोने के समान पीला हो गया है ।
उसके बाद 'मो' 'आ' 'य' 'रि' 'या' 'णं' इन सभी वर्णों का क्रमशः पीत रंग में ध्यान करता है ।
अक्षरों को सूक्ष्म और विशाल करने का क्रम यहाँ भी चलता है । दूसरे सोपान में साधक इसी प्रकार सम्पूर्ण पद ' णमो आयरियाणं' का पीत रंग में ध्यान करता है। पूरे पद को विशाल और सूक्ष्म बनाकर अपने ध्यान को दृढ़ करता है ।
तीसरे सोपान में 'णमो आयरियाणं' पद में अर्थ का चिन्तन करें । आचार्यदेव के गुणों का चिन्तवन करें ।
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