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( ३५ ) के तत्त्वचिन्तनरूप लक्षण में दिये गये औचित्य, वृत्तसमवेतत्व, आगमानुसारित्व और मंत्री आदि भावनासंयुक्तत्व, ये चार विशेषण बड़े ही महत्व के हैं। इन पर विचार करने से अध्यात्मयोग का वास्तविक रहस्य भलीभाँति समझ में आ जाता है। मैत्री आदि चार-(मैत्री, करुणा, मुदिता, और उपेक्षा) भावनाओं (जिनका वर्णन आगे किया जाने वाला है) से भावित होने वाला साधक पुरुष-(१) मैत्रीभाव से-सुखी जीवों के प्रति होने वाली ईर्ष्या का त्याग करता है; (२) करुणा से-दीन दुःखी जीवों के प्रति उपेक्षा नहीं करता है; (३) मुदिता से --उसका पुण्यशाली जीवों पर से द्वष हट जाता है; और (४) उपेक्षाभावना से-वह पापी जीवों पर से राग-द्वष दोनों को हटा लेता है। तात्पर्य कि इन उक्त चार भावनाओं के अनुशीलन से साधक आत्मा में ईर्ष्या का नाश, दया का संचार और राग-द्वष की निवृत्ति सम्पन्न होती है । इस प्रकार अध्यात्मयोग के स्वरूप को समझकर उसे आत्मसात् करने पर पापों का नाश, वीर्य का उत्कर्ष, चित्त की प्रसन्नता, वस्तुतत्व का बोध और अनुभव का उदय' होता है । यह अध्यात्मयोग की फलश्रति है।
इसके अतिरिक्त अध्यात्मयोग की एक और व्याख्या नीतिवाक्यामृत नाम के ग्रन्थ में उपलब्ध होती है जो कि उपर्युक्त व्याख्या से सर्वथा विलक्षण है। यथा-'आत्ममनोमरुत्तत्त्वसमतायोगलक्षणो ह्यध्यात्मयोगः' अर्थात् आत्मा-मनशरीरस्थ वायु और पृथिव्यादि तत्त्व इनकी समता-समान परिणाम-को अध्यात्मयोग कहते हैं । इस प्रकार का अध्यात्मयोग स्वरोदय ज्ञान में अधिक उपयोगी हो सकता है, प्रकृतयोग में यह कम उपयोगी है।
२. भावनायोग–अध्यात्मयोग के अनन्तर अब भावनायोग का वर्णन प्राप्त होता है जिसका स्वरूप निर्वचन इस प्रकार है :-प्राप्त हुए अध्यात्म-तत्त्व का बुद्धिसंगत-विचारपूर्वक निरन्तर बार-बार अभ्यास-चिन्तन करने का नाम भावनायोग है। आगमों में भावनायोग की बड़ी महिमा वर्णन की है। सूत्रकृतांगसूत्र में लिखा.
१. (क) 'सुखीयां दुखितोपेक्षां पुण्यद्वषमर्मिषु ।
रागद्वषो त्यजेन्नेता लब्ध्वाऽध्यात्म समाचरेत् ॥७॥ (ख) 'अतः पापक्षयः सत्त्वं शीलं ज्ञानं च शाश्वतम् । तथानुभवसंसिद्धममृतं ह्यद एव नु' ।।८॥
(योगभेदद्वात्रिंशिका-३० यशोविजयजी) (ग) 'मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावना
तश्चित्तप्रसादनम् । (पातं० यो० १।३६) २. टीका-आत्मा चिद्रूपः, मनः प्रसिद्धं, मरुतः शरीरस्था वायवः, तत्त्वं पृथिव्यादि, तेषां सममेकहेलया समतालक्षणः स हि स्फुटमध्यात्मयोगः कथ्यते ।
___३. 'अभ्यासोबुद्धिमानस्य, भावना बुद्धिसंगतः ।' ६ (यो० भे० द्वा०)
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