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________________ ( ३४ ) आचार्य की लोकोत्तर प्रतिभा का ही भाभारी है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने सचमुच ही योगविषयक अपनी उदात्त कल्पना से जैन वाङमय में एक नवीन युग उपस्थित कर दिया है । इसके प्रमाण में उनके योगदृष्टिसमुच्चय, योगबिन्दु, योगविशिका आदि अनेक ग्रन्थ रत्न उपस्थित किये जा सकते हैं । योगदृष्टिसमुच्चय में आचार्य ने मित्रा, तारा, बला, दीप्रा, स्थिरा, कान्ता प्रभा और परा, इन दृष्टियों में योग के सम्पूर्ण प्रतिपाद्य विषय को विभक्त करके योग के प्रसिद्ध यमादि आठ अंगों का (प्रत्येक दृष्टि में प्रत्येक अंग का) बहुत ही सुन्दर एवं सारगर्भित विवेचन किया है । इसके अतिरिक्त योगबिन्दु में मोक्ष-प्राप्ति के अन्तरंग साधक धर्मव्यापार को योग बतलाकर उसके-(१) अध्यात्म, (२) भावना, (३) ध्यान, (४) समता, और (५) वृत्तिसंक्षय, ऐसे पांच भेद किये हैं। पातंजल दर्शन के संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात नाम के द्विविध योग को इन्हीं पाँच भेदों से अन्तर्मुक्त कर दिया है । आचार्य के इन पाँच योगभेदों का संक्षिप्त वर्णन नीचे दिया जाता है : १. अध्यात्मयोग-जैनागमों में मोक्षाभिलाषी आत्मा को अध्यात्मयोगीअध्यात्मयोग से युक्त होने की बार-बार चेतावनी दी है क्योंकि चारित्र-शुद्धि के लिये अध्यात्मयोग के अनुष्ठान की मुमुक्षु आत्मा को नितान्त आवश्यकता है। इसी हेतु से आचार्य ने सबसे प्रथम अध्यात्मयोग का निर्देश किया है । उचित प्रवृत्ति से अणुव्रत-महाव्रत से युक्त होकर मैत्री आदि चार भावनापूर्वक शिष्टवचनानुसारआगमानुसार-जो तत्त्वचिन्तन करना उसको अध्यात्मयोग कहते हैं । यहाँ इतना स्मरण रहे कि अध्यात्मयोग की यह उक्त व्याख्या देशविरति नाम के पाँचवे गुणस्थान को-पांचवीं भूमिका को प्राप्त हुए साधक को लक्ष्य में रखकर की गई है। कारण कि औचित्यपूर्वक-सम्यग्बोधपूर्वक व्रत-नियमादि के धारण करने की योग्यता इस पाँचवें गुणस्थान में ही प्राप्त होती है। यहाँ पर अध्यात्मयोगा १. 'अध्यात्म भावना ध्यानं, समता वृत्तिसंक्षयः । मोक्षण योजनाद्योगः, एष श्रेष्ठो यथोत्तरम्' । (३१) (योगबिन्दु-हरिभद्रसूरि) २. (क) अज्झप्पज्झाणजुत्त-(अध्यात्मध्यानयुक्त :) (प्रश्नव्या० ३. सं० द्वा.) 'अध्यात्मनि आत्मानमधिकृत्य आत्मालम्बनं ध्यानं चित्तनिरोधस्तेन युक्तः' इति व्याख्याकारः। (ख) 'अज्झप्पजोगसुद्धादाणे उवदिट्ठिए ठिअप्पा' । छा०--(अध्यात्मयोगशुद्धादान उपस्थितः स्थितात्मा) (सूत्रकृतांग, अध्ययन १६, सूत्र ३) ३. 'औचित्यावृत्तयुक्तस्य, वचनात्तत्त्वचिन्तनम् । मैत्र्यादिभावसंयुक्तमध्यात्म तद्विदो विदुः ॥३५७॥ (योगबिन्दुः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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