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________________ ( ३३ ) यहाँ पर इतना और भी ध्यान रहे कि पतंजलि के चित्तवृत्तिनिरोधरूप योग- लक्षण से चित्त के विषय में उसकी - ( १ ) सत्प्रवृत्ति, (२) एकाग्रता और ( ३ ) निरोध, ये तीन बातें ध्वनित होती हैं । इसका अभिप्राय यह है कि योग में अधिकार प्राप्त करने वाले साधक के लिए चित्त की एकाग्रता के सम्पादनार्थ यम-नियमादिरूप सत्कार्यों में प्रवृत्त होना परम आवश्यक है और चित्त की एकाग्रता से प्राप्त होने बाले संप्रज्ञात- योग में कुछ वृत्तियों का निरोध तो हो जाता है परन्तु सर्व वृत्तियों का सर्वथा निरोध-क्षय नहीं होता, अतः सर्ववृत्तिनिरोधरूप असंप्रज्ञात योग के लाभार्थ निरोधरूप परिणाम की आवश्यकता है। जैन - प्रक्रिया के अनुसार यह विषय मनः समिति और मनोगुप्ति के स्वरूप में गतार्थ हो जाता है । आगमों' में मनःसमिति और मनोगुप्त के स्वरूप का विवेचन करते हुए समिति - ( सं सम्यक् इति - प्रवृत्ति) से मन की सत्प्रवृत्ति और गुप्ति से मन की एकाग्रता और मनोनिरोध अर्थ का ग्रहण किया है । अत: समिति गुप्ति के इस निर्वचन से मन के प्रवृत्ति, स्थिरता और निरोध, ये तीन परिणाम विभाग हो जाते हैं । प्रथम विभाग में समाधि का आरंभ, दूसरे में समाधि की प्राप्ति और तीसरे में समाधि के फलरूप मोक्ष की उपलब्धि होती है । इसलिए योग की 'चित्तवृत्तिनिरोध' रूप पातंजल व्याख्या समिति - गुप्तिरूप आगम-सम्मत संवर-योग से वस्तुतः पृथक् नहीं है । हरिभद्रसूरि की योग- व्याख्या जैन आचार्य हरिभद्रसूरि ने आगमों के आधार पर योग की जो ब्याख्या और विषय विभाग तथा उसमें जिस विशिष्ट पद्धति का अनुसरण किया है वह दार्शनिक जगत् में बिल्कुल नई वस्तु है । योगविषयक आगमों की प्राचीन वर्णन - शैली को तत्कालीन परिस्थिति के अनुसार दार्शनिकरूप में परिवर्तित - बदल - कर योग का जो सुन्दर स्वरूप योगाभिलाषिणी जनता के समक्ष उपस्थित किया है वह उक्त १. (क) 'मणेण पावएण पावकं अहम्मियं दारुणं निस्संसं वहबंधपरिकिले सबहुलं मरण परिकले ससं किलिट्ठे न कयावि मणेण पावतेणं पावगं किचिविज्झायव्वं एवं • मणसमितियोगेण भावितो णं भवति अन्तरप्पा ' ( प्रश्नव्या० १ संवरद्वार) छा० - मनसा पापकेन पापकमधार्मिकं दारुणं नृशंसं वधबन्धन परिक्लेश बहुलं मरणभयपरिक्नेश संश्लिष्टं न कदापि मनसा पापकेन पापकं किंचिदपि ध्यातव्यमेवं मनः समितियोगेन भावितो भवत्यन्तरात्मा । (ख) 'मणगुत्तयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? म०- — जीवे एगग्गं जणयइ । चित्तणं जीवे मणगुत्त े संजमाराहए भवइ' । (उत्तराध्ययन सूत्र २९ । ५३ ) छा- मनोगुप्ततया नु भगवन् ! जीवः किं जनयति । मनोगुप्ततया जीवः ऐकाग्र्यं जनयति । एकाग्रचित्तो नु जीवः मनोगुप्तः संयमाराधको भवति । ( तत्र मनोनिरोधस्य प्रधानत्वाद् — व्याख्याकारः ) तात्पर्य कि मनोगुप्ति से मन की एकाग्रता और एकाग्रता से मन का निरोध होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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