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वस्तु-तत्त्व के यथार्थ स्वरूप का निश्चय होता है और चारित्र-धर्म के सम्यक् अनुष्ठान से उस साध्यरूप वस्तु-तत्त्व की उपलब्धि होती है ।
चारित्र-धर्म में द्वादश विध तप और भावना, १७ प्रकार का व्रतादिरूप संयम, क्षमा-मार्दवादि दशविध यति-धर्म और समिति-गुप्तिरूप आठ प्रवचन माताएं इत्यादि आचरणीय धार्मिक क्रियाएँ गभित हैं। इनमें सभी प्रकार के योग और उसके अंगों का समावेश हो जाता है । तथा आस्रव-निरोधरूप संवर में योग का उक्त लक्षण भली-भाँति गतार्थ हो जाता है । मन, वचन और काया के व्यापार को योग कहते हैं । उसी की आस्रव संज्ञा है, क्योंकि वह कर्म बाँधने में निमित्तभूत है। - जैन परिभाषा में वीर्यान्तरायरे कर्म के क्षयोपशम से होने वाला आत्मपरिणामविशेष-आत्मप्रदेशों का परिस्पन्दन-कम्पन व्यापार-योग कहलाता है। वह मन, वचन और काया के आश्रित होने से तीन प्रकार का है-मनोयोग, वचनयोम, और कायायोग । इस योगरूप आस्रव का निरोध ही संवर है जिसे पतञ्जलि मुनि ने अपनी परिभाषा में चित्तवृत्तिनिरोधरूप योग-लक्षण से व्यक्त किया है । जिस प्रकार चित्त की एकाग्रदशा में सत्त्व के उत्कर्ष से बाह्य वृत्तियों का निरोध, क्लेशों का क्षय, कर्मबन्धनों की शिथिलता, निरोधाभिमुखता और प्रज्ञाप्रकर्ष-जनित सद्भूतार्थ-प्रकाश के द्वारा धर्ममेध-समाधि की प्राप्ति होती है, उसी प्रकार जीवन के आध्यात्मिक विकास-क्रम में उत्तरोत्तर प्रकर्ष की प्राप्ति का एकमात्र साधन आस्रवों का निरोध है । यह जितने-जितने अंश में बढ़ेगा उतने-उतने ही अंश में आत्मगत शक्तियां विकसित होंगी। अन्त में आस्रव अथवा योगनिरोधरूप इसी संवर-तत्त्व के उत्कर्ष से ध्यानादि द्वारा आत्मगत मल-विक्षेप और आवरण का आत्यन्तिक विनाश होकर कैवल्य ज्योति का उदय होता है । जैन शास्त्रों में समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय, चारित्र और तपरूप संवर-तत्त्व के सम्यक् अनुष्ठान से निष्कषायकषाय-मल से रहित आत्मा में मोहनीय कर्म के सर्वथा क्षय हो जाने से साथ ही ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म का भी ममूल घात होने पर कैवल्य-ज्योति का उदय होना माना है जिसको केवल-उपयोग कहते हैं। ऐसी आत्मा सर्वज्ञ और सर्वदर्शी कहलाती है। उसके इस निरावरण ज्ञान में सामान्य और विशेष रूप से विश्व के सम्पूर्ण पदार्थ करामलकवत् भासमान होते हैं।
१. 'कम्म जोगनिमित्तं वज्झइ जोगबंधे, कसायबंधे।' २. 'वीर्यान्तरायक्षयोपशमजनितो जीवपरिणामविशेषः ॥' ३. 'मोहक्षयाद् ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम् ।' (तत्त्वार्थ १०/१) ४. (क) 'मः सर्वज्ञः स सर्वविदिति ।'
(ख) 'खीणमोहस्स णं अरहओ तत्तो कम्मंसा जुगवं खिज्जति तं जहानाणावरणिज्जं दंसणावरणिज्जं अंतरातियं ।' (स्थानांग स्था० ३, उ० ४)
छा०-क्षीणमोहस्याहतः ततः कर्माशा युगपत् क्षपयन्ति, तद्यथा-ज्ञानावरणीयं दर्शनावरणीयमान्तरायिकम् ।
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