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अवश्य रहती है, इसलिये संप्रज्ञात समाधि को सालम्बन या सबीज समाधि कहते हैं । परन्तु जब चित्त की समस्त वृत्तियाँ पूर्णरूप से निरुद्ध हो जाती हैं तब असंप्रज्ञात समाधि का आविर्भाव होता है । उसमें ध्याता - ध्यान - ध्येयरूप त्रिपुटि का विभिन्न रूप से ज्ञान नहीं होता और इसमें किसी भी वस्तु का आलम्बन न रहने से उसे निरालम्बन यो निर्बीज समाधि कहा गया है । असंप्रज्ञात- योग के भी भव - प्रत्यय और उपायप्रत्यय ये दो प्रकार बतलाये हैं । इनमें उपाय - प्रत्यय समाधि ही वास्तविक समाधि है । उसकी प्राप्ति श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञा के लाभ से होती है । यह कथन योगसूत्र और उसके व्यासभाष्य के अनुसार किया गया है ।
यहाँ पर इतना अवश्य स्मरण रहे कि ' योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ' इस पातंजल सूत्र में सूत्रकार को वृत्तिनिरोध से क्लेशादिकों का नाश करने वाला निरोध ही अभीष्ट है । अन्यथा यत्किचित् वृत्तिनिरोध तो क्षिप्तादि भूमिकाओं में भी होता है परन्तु उसको इनकी योगरूपता कथमपि अभीष्ट नहीं । तब उक्त सूत्र का फलितार्थ यह हुआ कि - क्लेश-कर्म वासना का समूलनाशक जो वृत्तिनिरोध है, उसका नाम योग है । अन्यथा यों कहो कि - चित्तगतक्लेशादिरूप वृत्तियों का जो निरोध उसको योग कहते हैं । इस भाँति पातंजल योगदर्शन में योग को समाधिरूप मानकर उसकी उपर्युक्त व्याख्या की है जो साध्यरूप योग के स्वरूप को समझने में अधिक उपयोगी प्रतीत होती है ।
पातंजल योगव्याख्या का आगमानुसारित्व
जैनागमों में दो प्रकार का धर्म बतलाया है- १. श्रुत-धर्म, २. चारित्रधर्म । श्रुत-धर्म में वह सम्पूर्ण तत्त्वज्ञान समाविष्ट है जिसके मनन से साध्यरूप
१. ( क ) ' क्षिप्तं मूढं विक्षिप्तमेकाग्रं निरुद्धमिति चित्तभूमयः । तत्र विक्षिप्ते चेतसि विक्षेपोपसर्जनीभूतः समाधिर्न योगपक्षे वर्तते । यस्त्वेकाग्रे चेतसि सद्भूतमर्थं प्रद्योतयति - क्षिणोति च क्लेशान् कर्मबन्धनानि श्लथयति — निरोधाभिमुखं करोति स सम्प्रज्ञातो योगः इत्याख्यायते । स च वितर्कानुगतो विचारानुगतः आनन्दानुगतोऽस्मि - तानुगत इत्युपरिष्टात्प्रवेदिष्यामः । सर्ववृत्ति निरोध इत्य संप्रज्ञातः समाधिः । ( १ - १ )
(ख) 'श्रद्धावीर्य्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक इतरेषाम्' । (१।२० )
२. 'तथा च यद्यपि योगः समाधिः स एव च चित्तवृत्तिनिरोधः स च सार्वभौमः सर्वासु क्षिप्तादिभूमिषु भवः, एवं च क्षिप्तादिष्वतिप्रसंगः तत्रापि हि यत्किञ्चिद्वृत्तिनिरोधसत्त्वात् तथापि यो निरोधः क्लेशान् क्षिणोति स एव योगः, स च संप्रज्ञातासंप्रज्ञातभेदेन द्विविधः इति नातिप्रसंग इत्यर्थः ' (यो० १-१ के टिप्पण में स्वा०बालकराम ) ३. 'दुविहे धम्मे पन्नत्ते तंजहा - सुयधम्मे चेव चारित धम्मे चेव' । ( स्थानांग सूत्र, स्थान २, उद्द े० १ सू०७२ )
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