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________________ कभी-कभी स्थिरता को धारण करता है सर्वथा नहीं, यही इसमें विशेषता है। चित्त की ये तीनों ही अवस्थाएँ योग-समाधि के लिये अनुपयोगी होने से उपादेय नहीं हैं, इसलिये चित्त की एकाग्र और निरुद्ध ये दो अन्तिम अवस्थाएँ ही योगाधिकार में प्रवृत्त होने वाले मुमुक्षु पुरुष के लिये उपादेय मानी गई हैं, कारण कि इन्हीं दो भूमिकाओं में समाधि की प्राप्ति हो सकती है। जिस समय चित्त बाह्य वृत्तियों के रुक जाने पर एक ही विषय में एकाकार वृत्ति को धारण करता है तब उसको एकाग्र कहते हैं परन्तु इस अवस्था में कुछ अन्तरंग सात्त्विक वृत्तियाँ रहती हैं। उन सब वृत्तियों और तज्जन्य संस्कारों का भी जिस अवस्था में लय हो जाता है वह चित्त की निरुद्ध-अवस्था है । सारांश कि एकाग्रचित्त में बाह्य वृत्तियों का तिरोधान होता है और निरुद्धचित्त में सभी वृत्तियाँ विलीन हो जाती है। जैसे कि ऊपर बतलाया गया है, चित्त की इन पांच भूमिकाओं में पहले की क्षिप्त और मूढ़ ये दो तो समाधि के लिये सर्वथा अनुपयोगी हैं। तीसरी विक्षिप्त-भूमि कुछ-कुछ उपयोगी है और अन्त की दो सर्वथा उपादेय हैं। इन्हीं दोनों भूमियों में समाधि का उदय होता है । तथाच-इन भूमिकाओं के अनुरूप पहली दो में व्युत्थान (बहिर्मुखता), तीसरी में समाधि का आरम्भ, चौथो में एकाग्रता और पांचवीं में निरोध, इस प्रकार चित्त के चार परिणाम सम्भव होते हैं। इनमें सत्त्व के उत्कर्ष से चित्त की एकाग्रता लक्षण परिणत होने पर साधक आत्मा सद्भूत अर्थ का प्रकाश करती है-परमार्थभूत ध्येय वस्तु का साक्षात्कार करती है, चित्तगत क्लेशों को दूर करती है, कर्मबन्धनों को शिथिल और निरोध को अभिमुख करती है, इसी का नाम संप्रज्ञात-योग है । और वह वितर्कानुगत, विचारानुगत, आनन्दानुगत और अस्मितानुगत भेद से चार प्रकार का है। और सर्व प्रकार की चित्तवृत्तियों का सर्वथा निरोध असंप्रज्ञातयोग है। इस प्रकार योग को समाधिरूप मानकर उसके संप्रज्ञात, अप्रसंज्ञात ये दो भेद बतलाये हैं । और इन्हीं को क्रमशः सबीज और निर्बीज समाधि कहा है। चित्त की एकाग्र-दशा में ध्येय वस्तु का ज्ञान बना रहता है और मन को समाहित रखने के लिये किसी न किसी आलम्बन या बीज की आवश्यकता भी १. "विक्षिप्त-क्षिप्ताद्विशिष्ट, विशेषोऽस्थेमबहुलस्य कादाचित्कः स्थेमा ।' (तत्त्व-वैशा० टी० वाचस्पति मिश्र १-१) २. 'एकाग्रे बहिवृत्तिनिरोधः । निरुद्ध च सर्वासां वृत्तीनां संस्काराणां च ईत्यनयोरेव भूम्योर्योगस्य सम्भवः ।' (१-२ भोजवृत्तिः) ३. 'सम्यक् प्रज्ञायते क्रियते ध्येयं यस्मिनिरोधविशेष सः संप्रज्ञातः' अर्थात् जिसमें साधक को अपने ध्येय का भलीभाँति साक्षात्कार होता है उसका नाम संप्रज्ञात है । (१-१ टिप्पण-बालकरामस्वामी) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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