SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २६ ) समाधि अर्थ बतलाकर उसको-योग को-समाधिरूप माना है और चित्तवृत्ति निरोध उसका लक्षण किया है । तात्पर्य कि चित्त की जिस अवस्थाविशेष में प्रमाण विपर्ययादि वृत्तियों का निरोध होता है उस अवस्थाविशेष का नाम योग है। इस विषय का खुलासा इस प्रकार है : ___ 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' इस सूत्र में उल्लिखित चित्त शब्द से अन्त:करण अभिप्रेत है । सांख्ययोग-मत के अनुसार सारा विश्व त्रिगुणात्मक प्रकृति का परिणाम होने पर चित्त भी त्रिगुणात्मक सत्त्वरजस्तमोरूप है । परन्तु इतना स्मरण रहे किअन्य प्रकृति-परिणामों की अपेक्षा चित्त में सस्व गुण का अधिक उदय होता है। इस प्रकार सत्त्वादि गुणों की न्यूनता-अधिकता से चित्त की उच्चावच्च अनेक अवस्थाएं होती हैं जिन्हें भूमिकाओं के नाम से निदिष्ट किया गया है। चित्त की ऐसी भूमिकाएँ पांच मानी हैं-(१) क्षिप्त, (२) मूढ, (३) विक्षिप्त (४) एकाग्र और (५) निरुद्ध। क्षिप्त-अवस्था में रजोगुण के प्राधान्य से चित्त सदा चंचल-अस्थिर और बहिर्मुख बना रहता है, अतः सांसारिक विषय भोगों की ओर ही उसकी अधिकाधिक प्रवृत्ति होती है । मूढ़-अवस्था में तमोगुण की प्रधानता के कारण चित्त सदा विवेक-शून्य रहता है । हेयोपादेय अथवा कर्तव्याकर्तव्य का भान न होने से वह कभीकभी नहीं करने योग्य कार्यों में भी प्रवृत्त हो जाता है। तीसरी विक्षिप्त-अवस्था है। इसमें सत्त्वगुण की अधिकता से रजःप्रधान क्षिप्त-अवस्था की अपेक्षा चित्त (१) योग :---युज्यते जीवः कर्मभिर्येन-कम्मं जोगनिमित्तं वज्झइति' वचनात् युङ्क्त वा प्रयुक्त यं पर्यायं स योगो वीर्यान्तरायक्षयोपशमः जनितो जीवपरिणामविशेष इति ।"मनसा करणेन युक्तस्य जीवस्य योगो-वीर्यपर्यायो दुर्बलस्य यष्टिका द्रव्यवदुपष्टम्भकरोमनोयोग इति ।.."मनसो वा योगः करणकारणानमतिरूपी व्यापारो मनोयोगः । (२) प्रयोग:-मनःप्रभृतीनां व्याप्रियमाणानां जीबेन हेतुकर्तृ भूतेन यद्व्यापारणं प्रयोजनं स प्रयोगो मनसः प्रयोगो मनःप्रयोगः । (३) करणम्-क्रियते येन तत्करणं मननादिक्रियासु प्रवर्त्तमानस्यात्मनः उपकरणभूतः तथा तथा परिणामवत् पुद्गलसंघात इति भावः । तत्र मनसः एव करणं मनःकरणमिति । अथवा योगप्रयोगकरणशब्दानां मनःप्रभृतिकमभिधेयतया योगप्रयोगकरणसूत्रेष्वभि हितमिति नार्थभेदोऽन्वेषणीयः, त्रयाणामेषामेकार्थतया आगमे बहुशः प्रवृत्तिदर्शनात्' । (स्थानांग सूत्र ३ स्था० की वृत्ति) १. 'योगः समाधिः स च सार्वभौमश्चित्तस्य धर्मः' । २. 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' ।। ३. 'निरुध्यन्ते यस्मिन् प्रमाणादिवृत्तयोऽवस्थाविशेष चित्तस्य सोऽवस्थाविशेषो योगः' । (वाचस्पतिमिश्र) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy