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आगम कथित योगार्थ यहाँ पर इतना अवश्य स्मरण रखना चाहिये कि मूल जैनागमों में योग शब्द का प्रयोग प्रायः मन, वचन और काया के व्यापार अर्थ में ही किया गया है अतः मानसिक, वाचिक और कायिक क्रिया ही योग है । वह कर्मबन्ध में हेतुभूत होने से आस्रव भी कहलाता है। इनमें अप्रशस्त पाप-बन्ध का और प्रशस्त पुण्य-बन्ध का कारण है । जैन-सिद्धान्त में आस्रवद्वार-कर्मबन्ध का हेतु-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, और योग-मन-वचन-काया का व्यापार, ये पांच माने हैं। प्रायः इन दो (योग एवं कषाय) पर ही पुण्य अथवा पाप रूप शुभाशुभ कर्म-बन्ध की तरतमता अवलम्बित है । जैन-संकेतानुसार कर्म-योग्य पुद्गलों अर्थात् कर्मरूप से परिणत होने वाले अणुओं का आत्म-प्रदेशों के साथ सम्बद्ध होना ही बन्ध है और उसमें मन, वचन और काया के योग-सम्बन्ध----की नितान्त आवश्यकता रहती है। कारण कि आत्मा की शुभाशुभ प्रत्येक प्रवृत्ति में इन्हीं तीनों-मन, वाणी और शरीर का किसी न किसी प्रकार से सम्बन्ध रहता है । इस प्रकार मानसिक, वाचिक और कायिक व्यापार के अर्थ में योग शब्द आगमों में प्रयुक्त हुआ है । और प्रस्तुत योग के अर्थ में आगमों में बहुधा ध्यान' या समाधि शब्द का उल्लेख किया गया है जिसका वर्णन आगे मिलेगा।
योग की पातञ्जल व्याख्या वैदिक सम्प्रदाय के योगविषयक सर्वमान्य पातञ्जल दर्शन में योग का
इति । अत एव स्कन्धादिषु–'यत्समत्वं द्वयोरत्र जीवात्मपरमात्मनोः, समष्टसर्वसंकल्पः समाधिरभिधीयते' । 'परमात्मात्मनोर्योऽयमविभागः परन्तप ! स एव तु परो योगः समासात कथितस्तव' ।। इत्यादिषु वाक्येषु योगसमाध्योः समानलक्षणत्वेन निर्देशः संगच्छते (योगभाष्यभूमिका स्वामि बालकरामकृत)।
१. 'तिविहे जोए पण्णत्ते तंजहा-मणजोए वइजोए कायजोए'। छा०—त्रिविधः योगः प्रज्ञप्तः तद्यथा-मनोयोगः वाग्योगः कायायोगः ।
(ठाणांग सू० स्थान ३) २. 'पच आसवदारा पण्णत्ता तंजहा–मिच्छत्तं अविरई पमाया कसाया जोगा'।
(समवायांग सम०५) छा०–पञ्च आस्रवद्वाराणि प्रज्ञप्तानि तद्यथा-मिथ्यात्वमविरतिः प्रमादाः कषायाः योगाः।
३. जोगबन्ध कसायबन्धे (समवा: सम० ५) तात्पर्य कि कर्म का बन्ध योग से-मन, वचन, काया के व्यापार से और कषाय-क्रोध, मान, माया और लोभ से होता है।
४. नव (8) आगमों में प्रयुक्त होने वाले योग, प्रयोग, और करण-ये तीनों शब्द एक ही अर्थ में ग्रहण किये गये हैं ऐसी व्याख्याकारों की सम्मति है
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