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________________ है कि भावनायोग से जिसकी आत्मा शुद्ध हो गई है बह साधक, जल में नौका के समान है और जिस प्रकार किनारे लगने पर नौका को विश्राम मिलता है, उसी प्रकार साधक को भी सर्व प्रकार के दुःखों से छुटकारा मिलकर परम शांति का लाभ होता है । जिस प्रकार सतत अभ्यास और निरन्तर चिन्तन से ही समझा हुआ पदार्थ चित्त में स्थिर रह सकता है, उसी प्रकार अध्यात्मतत्त्व को हृदय-मन्दिर में स्थिर रखने के लिये उसका दीर्घ काल तक सत्कारपूर्वक सतत चिन्तन करना भी परम आवश्यक है । इस प्रकार के चिन्तन का नाम ही भावना है । इसलिये अध्यात्मयोग का बहुत कुछ तत्त्व भावनायोग पर ही निर्भर है। यहाँ पर बुद्धिसंगत चिन्तनरूप भावना के स्वरूप में चिन्तन के साथ जो दीर्घकाल आदि तीन विशेषण लगाये गये हैं, वे बड़े महत्व के हैं । अनादिकाल से यह आत्मा वभाविक संस्कारों-कर्मजन्य उपाधियों-से ओतप्रोत हो रही है। इन वैभाविक संस्कारों का विलय आत्मा के स्वाभाविक गुणों के उदय से हो सकता है, और आत्मगुणों का उदय अध्यात्मयोग की अपेक्षा रखता है । अत: उसका दीर्घकाल तक निरन्तर और सत्कारपूर्वक चिन्तन करना परम आवश्यक ठहरता है, जिससे कि अध्यात्मयोग के प्रभाव से लय को प्राप्त होने वाले वैभाविक संस्कारों का फिर से प्रादुर्भाव न होने पावे। और इसमें तो कुछ सन्देह ही नहीं कि श्रद्धापूर्वक लगन से किया जाना वाला कार्य ही फलप्रद होता है। यही बात महर्षि पतञ्जलि ने समाधि-प्राप्ति के लिए साधन रूप से उपादेय अभ्यास के विषय में कही है। अध्यात्मयोगी के लिए ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वैराग्य, ये पांच विषय भावना के हैं । इनकी भावना से वैभाविक संस्कारों का विलय, अध्यात्मतत्त्व की स्थिरता और आत्मगुणों का उदय होता है। इसके अतिरिक्त भावनायोग के प्रसंग में यद्यपि (१) अनित्य, (२) अशरण, (३) संसार, (४) एकत्व, (५) अन्यत्व, (६) अशुचि. (७) आस्रव, (८) संवर, (६) निर्जरा, (१०) लोक, (११) बोधिदुर्लभ और (१२) धर्म, इन बारह भावनाओं का वर्णन भी प्रसंगतः प्राप्त हो जाता है, परन्तु विस्तारभय से उसका वर्णन यहाँ स्थगित कर दिया गया है । १. 'भावणाजोगसुद्धप्पा, जले णावा व आहिया । नावा व तीरसंपन्ना, सव्वदुक्खा तिउट्टइ' ॥ (१५-५) छा०-भावनायोगशुद्धात्मा, जले नौरिवाहितः। नौरिव तीरसंपन्नः, सर्वदुःखात् त्रुटयति ॥ २. 'स तु दीर्घकालनरन्तर्यसत्कारासेवितो दृढभूमिः'। (पातं० योग १-१४) 'बहुकालनरन्तर्येण आदरातिशयेन च सेव्यमानो दृढभूमिः-स्थिरीभवति' । (भोजवृत्तिः) ३. इसका अधिक विवेचन 'भावनायोग' नामक पुस्तक में देखना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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