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________________ भावनायोग साधना | २२६ समतायोग की दृष्टि से विचार किया जाय तो यह भावना समतायोग का हृदय है। शरीर में जो स्थान हृदय का होता है, वही कारुण्य भावना का समतायोग में है। समतायोग की साधना वही साधक कर सकता है जिसका हृदय कोमल हो, जो परदुःखकातर हो, दूसरे का दुःख देखकर पसीज जाय । इसके विपरीत कठोर हृदय वाला समतायोग की साधना कर ही नहीं सकता। तीर्थंकर से बड़ा समतायोगी कौन होगा ? वे भो संसार के सभी जीवों के प्रति दया भाव रखते हैं, और इसीलिए वे प्रवचन फरमाते हैं ? अतः कारुण्य भावना के दृढ़ अभ्यास से साधक आध्यात्मिक उत्कर्ष प्राप्त करता है, जो अध्यात्मयोग का लक्ष्य है। (४) माध्यस्थ भावना : विपरीतता में समत्व (राग-द्वषविजय की साधना) __ माध्यस्थ भावना का दूसरा नाम उपेक्षावृत्ति है । उपेक्षा का आशय है-राग-द्वेष न करना, अनुक्ल एवं प्रतिकूल स्थितियों में सम रहना; अनुकूल में राग न करना और प्रतिकूल के प्रति द्वेष न रखना । सदैव उपेक्षावृत्ति तथा माध्यस्थ भावना में रमण करना । __ माध्यस्थ भावना द्विमुखी है-यह राग पर भी विजय प्राप्त करती है और द्वेष को भी निमूल करती है। इस प्रकार दोनों ओर से शोधन एवं परिमार्जन करके आत्मा को शुद्ध एवं निर्मल बनाती है । साधक माध्यस्थ भावना का अनुचिन्तन करता है कि ये अनुकूल एवं प्रतिकूल दोनों ही प्रकार की स्थितियां संयोगजन्य हैं और ये संयोग भी मेरे पूर्वकृत शुभ-अशुभ कर्मों के परिणाम हैं । इनमें हर्ष अथवा शोक क्यों करना; क्योंकि हर्ष और शोक दोनों ही अन्त में दुःख के–कर्मबन्ध के कारण बनते हैं; और वास्तव में हर्ष तथा शोक दोनों ही भाव एक ही सिक्के दो पहलू हैं। . वह भगवान महावीर के इन शब्दों पर अपनी विचारधारा और आस्था केन्द्रित कर देता है १ सव्वजीवरक्खणदयट्ठयाए पावयणं भगवया सुकहियं । -प्रश्नव्याकरण सूत्र, संवर द्वार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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