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________________ २२८ जन योग : सिद्धान्त और साधना प्रमोद भावना की. साधना द्वारा साधक अपनी गुण-ग्रहण की क्षमता को विकसित करता है । गुणियों के प्रति अनुराग और उनके प्रति आदर-सन्मान के कारण उसके हृदय में भी वे गुण आ जाते हैं। इस भावना का अनचिन्तन करता हुआ साधक बार-बार उन गुणों का स्मरण करता है, गुणीजनों-गुरुजनों के प्रति विनय एवं भक्ति का भाव रखता है। इस विनम्रतापूर्ण भक्ति की भावना से उसमें अनेक सद्गुणों का विकास हो जाता है तथा उसकी चारित्रिक एवं आध्यात्मिक उन्नति होती है। इसीलिए प्रमोद भावना को समतायोग का नेत्र कहा गया है। जैसे नेत्र सुन्दर-असुन्दर सभी वस्तुओं को देखते हैं, किन्तु आकर्षित सुन्दर के प्रति ही होते हैं। इसी प्रकार गुणदृष्टि वाला साधक गुणों के प्रति ही आकर्षित होता है, गुणों को ही ग्रहण करता है। यह गुण-ग्रहण ही प्रमोद भावना है । (३) कारुण्य भावना : अभय की साधना साधक न तो स्वयं कभी भयभीत होता है और न किसी अन्य को ही भयभीत करता है वरन वह अन्य भयत्रस्त, कष्ट से पीड़ित, दुःखी, आर्त प्राणियों के प्रति अनुकम्पा रखता है, उनको हितचिन्ता करता है तथा चाहता है कि सभी प्राणी दुःख से मुक्त हों, सुखी रहें। कारुण्य भावना का बार-बार अभ्यास करने से साधक का हृदय दया की भावना से परिपूर्ण हो जाता है, उसके हृदय में वात्सल्य का सागर उमड़ने लगता है। वह स्व-दया और पर-दया-दोनों प्रकार की दया का पालन करने लगता है। पर-दया में वह किसी अन्य प्राणी को कष्ट नहीं देता, पीड़ित नहीं करता, ऐसे वचन भी नहीं बोलता जो किसी के हृदय को वेध दे तथा स्व-दया में आर्त-रोद्रध्यान करके अपनी आत्मा को पीड़ित नहीं करता, विषय-कषायों की ज्वाला में नहीं जलाता। इस प्रकार वह स्वयं भी अभय रहता है और दूसरों को भी अभय देता है, सभी के सुख की कामना करता है और दुःखी एवं पीड़ितों के प्रति अनुकम्पाभाव रखता है। १ सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुःख भाग् भवेत् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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