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________________ भावनायोग साधना | २२७ (१) मैत्री भावना : आत्मौपम्य भाव की साधना मैत्री भावना का साधक सभी जीवों की आत्मा को अपनी आत्मा के समान समझता है । इस भावना के दृढ़ अभ्यास से उसके हृदयगत ईर्ष्या, द्वेष, शत्रता आदि के संस्कारों का परिमार्जन होकर उसमें विश्व-मंत्री की भावना का संचार हो जाता है। उसका अहिंसाभाव परिपुष्ट होता है, किसी के भी प्रति वैर-विरोध की भावना मन में शेष नहीं रहती। वह सभी प्राणियों की हित कल्याण-कामना करता है। सभी की कल्याण-कामना की मंगल भावना से साधक का स्वयं अपना कल्याण होता है, उसके हृदय में प्राणिमात्र के प्रति बन्धुभाव तथा समत्व भावना का विकास होता है और वह समतायोगी बन जाता है। मैत्री भावना का अनुचिन्तन करता हुआ साधक विचार करता हैसंसार के सभी प्राणी मेरे अपने हैं, सभी के साथ मेरे (किसी न किसी पूर्वजन्म में) सम्बन्ध बने हैं, इन्होंने मुझ पर उपकार किये हैं, अतः ये सभी मेरे उपकारी हैं। वर्तमान में कष्ट देने वालों के बारे में भी वह ऐसी भावना रखता है, सोचता है-यह व्यक्ति मेरे पूर्वकृत अशुभ कर्मों की निर्जरा में सहायक बन रहा है, अतः यह मेरा उपकारी है। इस प्रकार की भावना से उसका मैत्रीभाव और भी परिपुष्ट बन जाता है। इसका प्रभाव अन्य प्राणियों पर भी पड़ता है, उनमें भी शत्रुभाव का अभाव हो जाता है। बड़े-बड़े साधकों के समीप आकर जो सर्प-नकुल, मृग-सिंह आदि पशु भी अपना जन्मजात वैर भूल जाते हैं, उनकी शत्रता उपशान्त हो जाती है, उसका कारण साधक का उत्कृष्ट मैत्रीभाव ही है। ___ अतः मैत्री भावना साधक की, स्वयं को और उसके संपर्क में आने वाले अन्य सभी प्राणियों की दुवृत्तियों का परिमार्जन करके सुवृत्तियों को स्थापित करती है तथा आत्मौपम्य भाव को विकसित करती है। (२) प्रमोद भावना : गुण-ग्रहण की साधना आध्यात्मिक उन्नति और अध्यात्मयोग की साधना हेतु साधक के लिए आवश्यक है कि वह गुण ग्रहण करे। और माधक गुण तभी ग्रहण कर सकता है, जब वह गुणी जनों के प्रति अनुराग रखे, उनके प्रति प्रशंसा और सन्मान के भाव रखे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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