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२२६ जन योग : सिद्धान्त और साधना
आचार्य अमितगति का इन भावनाओं के बारे में प्रसिद्ध श्लोक है
सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोवं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थ्यभावं विपरीतवृत्तौ सदा ममात्मा विदधातु देव ! ॥
अर्थात् समस्त सत्त्व (जीव, प्राणी, भूत) पर मैत्री हो, गुणीजनों के प्रति प्रमोद भाव हो-उनके गुणों के प्रति अनुराग और सन्मान की भावना रहे। दःखी जीवों के प्रति करुणा की भावना रहे और जो मुझसे विरोध रखते हैं उनके प्रति उपेक्षा या माध्यस्थ्य भावना रहे; अथवा प्रतिकूल प्रसंगों में भी राग-द्वेष से दूर तटस्थ रहूँ; मेरी आत्मा सदैव इस प्रकार चिन्तन करे ।
__ आचार्य हेमचन्द्र ने इन भावनाओं को ध्यान को पुष्ट करने वाली बताया है
मंत्री-प्रमोद-कारुण्य-माध्यस्थानि नियोजयेत् । धर्मध्यानमुपस्कर्तुं तद्धि तस्य रसायनम् ।।
-योगशास्त्र ४/११ अर्थात्-मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ भावना के साथ आत्मा की योजना करनी चाहिए-आत्मा के साथ इनका योग (संयोग) करना चाहिए। ये भावनाएँ रसायन के समान धर्मध्यान (ध्यान) को परिपुष्ट बनाती हैं।
आचार्य हेमचन्द्र ने इन भावनाओं का वर्णन भी ध्यान के अन्तर्गत किया है।
- आचार्य हरिभद्र ने जो आठ योगदृष्टियाँ बताई हैं, उनमें भी प्रथम दृष्टि का नाम उन्होंने मित्रा' दिया है।
इन सब प्रमाणों के आधार पर मंत्री आदि चारों भावनाएँ योग से सम्बन्धित हैं, उसका कारण यह है कि इन भावनाओं की साधना साधक को समत्वयोग की साधना के निकट पहुँचा देती है। माध्यस्थ भावना तो स्पष्ट ही समत्वयोग की साधना है। इसी प्रकार अन्य तीनों भावना भी आत्मोल्कर्ष और अध्यात्मयोग में सहायक बनती हैं। इसी कारण ये चारों भावनाएँ, योगभावना के रूप में वर्गीकृत की गई हैं।
१ मित्रा तारा बला दीप्रा स्थिरा कान्ता प्रभा परा।
नामानि योगदृष्टीनां लक्षणं च निबोधत ॥ - -योगदृष्टिसमुच्चय, १३
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