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जैन योग : सिद्धान्त और साधना
लेकिन इस एकत्व का अभिप्राय यह नहीं है कि वह अपने को असमर्थ समझने जगता है। असमर्थता की भावना तो कायरता है, जो सम्यक्त्व के प्रथम स्पर्श में ही छट जाती है । इस एकत्व भावना के अनचिंतन से तो साधक में प्रबल पुरुषार्थ जागता है। वह इतना पुरुषार्थी हो जाता है कि अकेला ही अपनी साधना के पथ पर बढ़ने का प्रयास करता है। इससे पर-सहायनिरपेक्षता के संस्कार दृढ़ होते हैं।
__एकत्व की भावना के अनुचिंतन से साधक सर्वसंयोगों से विरक्त होकर आत्मिक चिन्तन में अपना पुरुषार्थ प्रगट करता है। एकत्व भाव के साथ धर्म की साधना-उपासना करता है। भगवान के शब्दों में-'एगं चरेज धम्मो''अकेले ही धर्म का आचरण करो-यही उसकी वृत्ति-प्रवृत्ति हो जाती है। (५) अन्यत्व मावना : भेदविज्ञान की साधना . अन्यत्व भावना के अनुचिन्तन से साधक भेदविज्ञान की साधना करता है । भेदविज्ञान का अर्थ है-हंसविवेक-नीर-क्षीर न्याय । वह इस भावना द्वारा आत्म और अनात्म दोनों को पृथक समझता है। आत्मिक गुणों और भावों के अतिरिक्त अन्य सभी भावों-यथा क्रोध, मान आदि कषायों के भाव और राग-द्वषों के तथा काम-भोग के साधन और इनको प्राप्त करने की इच्छाओं, आशाओं को अन्य मानता है।
इस अन्यत्व भावना का बार-बार अनुचिंतन तथा अभ्यास से साधक का भेदविज्ञान सुदृढ़ हो जाता है, अन्य वस्तुओं को प्राप्त करने की उसकी इच्छा क्षीण होती है, इन्द्रियों के विषयों की ओर रुचि कम हो जाती है, ममत्वभाव कम होकर समत्वभाव प्रादुर्भूत हो जाता है ।
साधक का दृढ़ विश्वास हो जाता है कि ममत्व ही दुःख, चिन्ताओं और मानसिक उद्वेगों का कारण है, अतः वह ममत्व को छोड़कर समत्व में लीन होता है । इन सब से अपनी आत्मा को भिन्न समझता है ।
इस प्रकार उसका अन्यत्व भाव सुदृढ़ होता है। (६) अशुचि भावना : पावनता की ओर प्रयाण
__ अशुचिभावना का अनुचिंतन करता हुआ साधक अपने शरीर की अशुचि को देखता है।
यह शरीर जैसा बाहर है, वैसा ही भीतर है; और जैसा भीतर है वैसा ही बाहर है। १ सूत्रकृतांग २/१/१३.
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