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________________ भावनायोग साधना २१७ करता है और सोचता है - 'एतदुक्खं जरिए व लोयं" कि सम्पूर्ण संसार और संसार के प्राणी एकान्त दुःख से दुखी हैं, कहीं भी सुख का लेश नहीं है । वह भगवान महावीर के शब्दों में 'पास लोए महन्मयं " संसार को महाभयानक देखता है । इस प्रकार के अनुचिन्तन से साधक के मन में संसार और सांसारिक काम-भोगों के प्रति विरक्ति हो जाती है, उसमें वैराग्य भाव दृढ़ हो जाता है और संसार - बन्धनों से मुक्त होने की प्रबल अभिलाषा जाग उठती है । इस भावना से साधक संसार के प्रति निराशा या भय की भावना से व्याकुल नहीं होता, किन्तु संसार में जो दुःख, पीड़ाएँ, मृत्यु आदि अवश्यंभावी घटनाएँ हैं, उनको समझकर अनुद्विग्न और तितिक्षु रहता है । ( ४ ) एकत्व अनुप्रेक्षा : संयोगों से विरक्ति एकत्व अनुप्रेक्षा का अनुचिन्तन करने वाले साधक की दृष्टि आत्मकेन्द्रित हो जाती हैं, वह संसार के सभी पदार्थों और सम्बन्धों को केवल संयोगजनित मानता है और उनसे विरक्ति धारण करके अपनी आत्मा को ही अपना मानता है । वह आत्मा को बहुत ही इष्ट, कान्त, प्रिय और मनोज्ञ देखने, जानने और समझने लगता है । उसकी दृढ़ मान्यता हो जाती है नाणदंसणसंजओ । एगो मे सासओ अप्पा, सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोग लक्खणा ॥ अर्थात् -- ज्ञान (विवेक) और दर्शन (श्रद्धा) ( अथवा देखना और (जानना) गुण से संयुक्त मेरो आत्मा ही शाश्वत है, उसके अतिरिक्त ये सब तो बाह्य भाव हैं, जिनका मेरी आत्मा के साथ संयोग मात्र है । जो वस्तुएँ बाहरी हैं, उनसे तो साधक के चित्त में विरक्ति हो ही जाती है, किन्तु वह अपने मनोभावों को भी अपना नहीं मानता; सिर्फ अपने आत्मिक गुणों को हो अपना मानता है; अपनी आत्मा के गुणों अथवा आत्मा में उसकी रुचि इतनी दृढ़ हो जाती है कि वह उसी में मग्न रहता है । वह इस प्रकार के एकत्व का आश्रय लेता है । १ सूत्रकृतांग १७ /११ २ आचारांग ६ / १ ३ मज्झवि आया एगे भंडे, इट्ठे, कंते, पिये, मणुन्ने । ४ आतुरप्रत्याख्यानप्रकीर्णक २६ Jain Education International For Private & Personal Use Only - भगवती सूत्र २ / १ www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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