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२१६ जैन योग : सिद्धान्त और साधना
किन्तु अशरण अनुप्रेक्षा का साधक इन सब साधनों की नश्वरता और क्षण-क्षण बदलते रूप को देखकर इनके प्रति राग भावना का त्याग कर देता है, इनके मोह में मूच्छित नहीं होता। वह धर्म की शरण को ही वास्तविक शरण मानता है और 'अप्पाणं शरणं गच्छामि'-मैं आत्मा की शरण में जाता हूँ, इस सूत्र को हृदयगम करता है, अपनी आत्मा को इस सूत्र से भावित करता है और स्वयं को ही समर्थ बनाता है ।
वस्तुतः अशरण अनुप्रेक्षा की साधना संसार और समस्त सांसारिक सम्बन्धों तथा साधनों से राग-त्याग की साधना है । इस भावना द्वारा वह समस्त संयोगज सम्बन्धों और विकल्पों से मुक्त होने का प्रयास करता है। उनके प्रति कल्पित आकर्षण से दूर हटकर वास्तविकता को समझता है ।
यदि साधक गृहस्थयोगी है, पारिवारिक और सामाजिक उत्तरदायित्व उसके कन्धे पर है तो वह सिर्फ कर्तव्य भावना से अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करता है, उनमें राग-द्वष नहीं करता, यदि राग-द्वेष होते भी हैं तो अत्यल्प मात्रा में होते हैं । वह पुत्र-पुत्रियों तथा अन्य किसी भी परवस्तु से कोई आशा-अकांक्षा-अपेक्षा नहीं करता। वह अनासक्त भाव से कर्म करता है, सिर्फ कर्तव्य-बुद्धि से।
गृहत्यागी साधक तो पूर्णतया अनासक्त कर्म करता है, क्योंकि वह फलाशा को पूर्णतया छोड़ चुका होता है।
अशरण भावना, इस अपेक्षा से, अनासक्त योग की साधना है । (३) संसार अनुप्रेक्षा : वैराग्य की ओर बढ़ते कदम
संसार का अभिप्राय है-जन्म-मरण का चक्र । यह भ्रमण नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव-इन चार गतियों में होता है । जो आत्मा इन चार गतियों में भ्रमण करता है, वही संसारी आत्मा कहा जाता है। इसीलिए विशेषावश्यकभाष्य में संसार का लक्षण बताया गया है
संसरणं संसारः । भवाद् भवगमनं नरकादिषु पुनमणं वा ।
अर्थात्-एक भव (जन्म) से दूसरे भव में, एक गति से दूसरी गति में भ्रमण करते रहना ही संसार है।
संसार भावना (अनुप्रेक्षा) का अनुचिन्तन करता हुआ साधक संसार के दुःखों, जन्म-जरा-मरण की पीड़ाओं, चारों गतियों के कष्टों पर विचार
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