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भावनायोग साधना
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चौथा सूत्र है - 'इमं सरीरं जरामरणधम्मयं - वृद्धावस्था और मृत्यु इस शरीर का स्वाभाविक और अनिवार्य परिणाम है । समय पाकर इसमें वृद्धावस्था भी आयेगी और इसकी मृत्यु भी होगी, आत्मा इसे छोड़कर अन्यत्र - अन्य किसी गति-योनि में जायेगा भी ।
इस प्रकार साधक अनित्य भावना की साधना इन चार सूत्रों के आधार पर करता है । प्रेक्षाध्यान में जब वह अपने औदारिक शरीर की प्रेक्षा करता है तो वहाँ उसे शरीर में अवस्थित लाखों-करोड़ों कोशिकाएँ प्रतिपल जीवनशून्य होती हुई, मरती हुई दिखाई देती हैं । और फिर वह अनित्य अनुप्रेक्षा के चिन्तवन से इस तथ्य को कि शरीर अनित्य हैं अपने मन-मस्तिष्क में हढ़ीभूत कर लेता है ।
इस भावना के चिन्तवन से उसका अपने शरीर प्रति ममत्व भाव विनष्ट हो जाता है ।
(२) अशरण अनुप्र ेक्षा-पर-पदार्थों से विरक्ति की साधना अशरणता - मेरा कोई रक्षक नहीं, कोई शरण नहीं, कोई मेरा नाथ नहीं - इस अनुप्रेक्षा के साथ मन-मस्तिक को जोड़ना, योग करना, अशरण अनुप्रेक्षायोग साधना है ।
भगवान ने साधक को अशरण अनुप्रेक्षा का सूत्र दिया
णालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा । तुमपि तेसि गालं ताणाए वा, सरणाए वा ॥
अर्थात् — हे साधक ! वे स्वजन तुम्हें त्राण देने नहीं हैं, और तुम भी उन्हें त्राण देने में, शरण देने में
-आचारांग २/१६४
में - शरण देने में समर्थ समर्थ नहीं हो ।
सामान्य मनुष्य भी प्रतिदिन अपने सामने गुजरते हुए संसार और संसारीजनों की प्रवृत्तियों को देखता है कि एक-दूसरे के दुःख, पीड़ा, कष्ट
को कोई बँटा नहीं सकता, मृत्यु के मुँह में जाने वाले को कोई बचा नहीं सकता, कोई भी एक-दूसरे को शरण नहीं दे सकता; धन-वैभव, सम्पत्ति, स्वजन - परिजन, मित्र, बन्धु बान्धव, विविध प्रकार के वैज्ञानिक उपकरण, औषधियाँ आदि कोई भी किसी को शरण देने में समर्थ नहीं हैं । यह सम्पूर्ण दृश्य प्रत्यक्ष देखकर भी सामान्य मानव इनमें राग करता है, इनके मोह में मूच्छित रहता है ।
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