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जैन योग : सिद्धान्त और साधना
से पुवं पेयं, पच्छा पेयं भेउरधम्मं, विद्वंसण-धम्मं, अधुवं, अणितियं, असासयं, चयावचइयं विपरिणामधम्मं, पासह एयं रूवं ।
- आचारांग ५ / २ / ५०६
अर्थात् - हे साधक ! तुम अपने इस शरीर को देखो। यह पहले अथवा पीछे एक दिन अवश्य ही छूट जायेगा । इसका स्वभाव ही विनाश और विध्वंसन है । यह शरीर अध्रुव, अनित्य और अशाश्वत है । इसका उपचयअपचय होता है । इसकी विविध अवस्थाएँ होती हैं। शरीर के इस रूप को देखो ।
शरीर की अनित्यता और मृत्यु की अनिवार्यता के बारे में दूसरा साधना सूत्र साधक को दिया
णत्थि कालस्स नागमो ।
- आचारांग २ / २ / २३६ शरीर मरणधर्मा है, यह क्षण प्रतिक्षण मृत्यु की ओर जा रहा है, इस तथ्य को सभी जानते हैं; किन्तु उनका आचरण इसके अनुकूल नहीं होता । माता पुत्र उत्पन्न होते ही भविष्य की आशाएँ- आकांक्षाएँ सँजोने लगती हैं; किन्तु इस तथ्य को नजरअन्दाज कर जाती है
मात कहे सुत बाढ़े मेरो । काल कहे दिन आवे मेरो ॥
किन्तु अनित्यभावना का साधक इस लोक परम्परा और लोक धारणा से अलग हट जाता है, वह शरीर के यथार्थ और वास्तविक स्वरूप का चिन्तन करता है । शरीर के सत्य को देखता है, कल्पना, व्यामोह और राग के आवरणों को तोड़कर सत्य का साक्षात्कार करता है ।
अनित्य भावना का साधक कुछ सूत्रों के अनुसार अपनी साधना करता है । उसका पहला सूत्र होता है - 'इमं सरीरं अजिच्च' यह शरीर अनित्य हैं । दूसरा सूत्र है— 'इमं सरीरं चयावचयधम्मय' - यह शरीर चय - अपचय स्वभाव वाला है । कभी यह पुष्ट होता है तो कभी कृश हो जाता है । तीसरा सूत्र है - ' इमं सरीरं विपरिणामधम्मयं ' - विभिन्न प्रकार के परिणमन इस शरीर में होते रहते हैं । कभी भोजन - पानी से इस शरीर में परिवर्तन होता है तो कभी सर्दी-गर्मी - बरसात के मौसम से । पुद्गलों से परिवर्तन होता है तो कभी मनुष्य की आवेगों-संवेगों से परिवर्तन होता है । इस प्रकार अनेकों प्रकार के परिवर्तन इस शरीर में होते रहते हैं । काल (समय) कृत परिवर्तन तो होते ही रहते हैं ।
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कभी दूसरे के संतापी अपनी ही भावनाओं,
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