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भावनायोग साधना २१३ अनुप्रेक्षायोग की साधना करने वाला साधक अपने पूर्वसंस्कारों और धारणाबों तथा राग-द्वेषमय मान्यताओं/मूढ़ताओं से परे हटकर, सत्य के प्रति समर्पित हो जाता है और सत्य को ही अपने मन में, अणु-अणु में रमाता है।
इस सत्य को अपने मन-मस्तिष्क में रमाने के लिए वह बारह अनुप्रेक्षाओं का बार-बार चिन्तवन करता है । बारह अनुप्रेक्षाओं के नाम ये हैं
(१) अनित्य अनुप्रेक्षा (७) आस्रव अनुप्रेक्षा (२) अशरण अनुप्रेक्षा (८) संवर अनुप्रेक्षा (३) संसार अनुप्रेक्षा __(6) निर्जरा अनुप्रेक्षा (४) एकत्व अनुप्रेक्षा (१०) लोक अनुप्रेक्षा (५) अन्यत्व अनुप्रेक्षा (११) बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा (६) अशुचि अनुप्रेक्षा (१२) धर्म अनुप्रेक्षा
इन बारह अनुप्रेक्षाओं का बार-बार चिन्तन-मनन करके साधक इन संस्कारों से अपनी आत्मा को भावित करता है, अतः इन्हें भावना भी कहा जाता है। अनुप्रेक्षा और भावना दोनों शब्द एकार्थवाची हैं।
प्राचीन आचार्यों के कथनानुसार भावना व अनुप्रेक्षा में वाणो-प्रयोग नहीं होता, सिर्फ मन ही उस विषय में गतिशील रहता है अतः मौनपूर्वक गंभीर चिन्तन-मनन को अनुप्रेक्षा या भावना कहा गया ह ।
इन अनुप्रेक्षाओं की साधना ही योग की दृष्टि से अनुप्रेक्षायोग साधना कहलाती है।
ध्यान की अपेक्षा से भावनाओं का वर्गीकरण इनमें से अनित्य, अशरण, संसार और एकत्व ये चार अनुप्रेक्षाएँ धर्मध्यान की भावनाएँ मानी जाती हैं अर्थात् धर्मध्यान की साधना में ये भावनाएं सहायक होती हैं।'
(१) अनित्य अनुप्रेक्षायोग-शरीरासक्ति-त्याग साधना भगवान महावीर ने अनित्य भावना के साधक को एक साधना सूत्र दिया
१ धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पण्णत्ताओ तं जहाएगाणुप्पेहा, अणिच्चाणुप्पेहा, असरणाणुप्पेहा, संसाराणुप्पेहा ।
-ठाणांग ४/१/२४७ (धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं कही हैं, यथा-एकत्वानुप्रेक्षा, अनित्यानुप्रेक्षा, अशरणानुप्रेक्षा और संसारानुप्रेक्षा ।)
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