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________________ भावनायोग साधना २१६ साधक इस अशुचि शरीर को अन्दर से अन्दर देखता है और झरते हुए विविध स्रोतों को भी देखता है।' शरीर की अशुचिता को देखने से साधक के मन में इस शरीर के प्रति रागासक्ति मिट जाती है और वह पावनता तथा पवित्रता की ओर मुड़ता है। पवित्रता उसे दिखाई देती है आत्मा में, आत्मिक गुणों में। उसका शरीरसौन्दर्य के प्रति मोह मिट जाता है और पवित्रात्मा के अनुभव की ओर वह मुड़ जाता है। वह अपनी आत्मा पर अपना ध्यान केन्द्रित करने लगता है। अशुचि भावना, इस प्रकार साधक को शुचिता की ओर, पवित्रता की ओर जाने का मार्ग प्रशस्त करती है और उसे आत्म-ध्यान की ओर अभिमुख करती है। (७) आस्रव भावना : आन्तर भावों का निरीक्षण अब तक की ६ भावनाएं बाह्य जगत से संबंधित थीं। उनके अनुचिंतन द्वारा साधक बाह्य जगत, शरीर आदि के प्रति ममत्व एवं आसक्ति का विसर्जन करता था, उनके प्रति मोह को तोड़ता था किन्तु इस आस्रव भावना द्वारा वह अपने आन्तरिक जगत का निरीक्षण करता है। वह देखता है कि मनवचन-काय-इन तीनों योगों को प्रवृत्ति के कारण कर्मों का आगमन हो रहा है। कर्मों का आगमन ही आस्रव है। यह आस्रव पाँच प्रकार का होता है-(१) मिथ्यात्व, (२) अविरति (३) प्रमाद (४) कषाय और (५) योग । __ इनमें से मिथ्यात्व का नाश तो वह पहले ही कर चुका होता है। शेष चार प्रकार के आस्रव ही उसको शेष होते हैं। उनका निरीक्षण करके साधक उन्हें न होने देने का प्रयास करता है। आस्रव भावना को साधना द्वारा साधक को कर्मबन्ध के हेतुओं का परिज्ञान हो जाता है, अतः उसमें उनसे विरति की भावना आती है और वह आस्रव के कारणों को अनास्रव के कारण बनाने की ओर गतिशील होता हैं। आस्रव वास्तव में आत्मा के छिद्र हैं । नाव में जिस प्रकार छिद्रों से पानी भरता है और पानी भरने से नाव को डूबने का खतरा पैदा होता है, उसो प्रकार आस्रव के रूप में आत्मा में कर्मजल भरता है और वह संसार समुद्र में डबता है। आस्रव भावना से अनुभावित साधक अपने मनश्छिद्रों को स्वयं देखता है, समझता है, पहचानता है, उन पर ध्यान केन्द्रित करता है, उन १ जहा अंतो तहा बाहिं, जहा बाहिं तहा अन्तो । अंतो अंतो देहन्तराणि पासति पुढो वि सवंताई। -आचारांग २/५/१२ २ आचारांग १/४/२/४४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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