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जन योग : सिद्धान्त और साधना
स्रोतों से आते-जाते कर्म-रूप-जल को समझने का प्रयत्न करता है । इस प्रकार साधक अपनी दुर्बलता और भूल को पहचानता और पकड़ता है। भूल को पकड़ लेना बहुत बड़ी सफलता है, क्षमता है। वह आगे चलकर उनको बन्द भी कर देता है और समस्त दुर्बलताओं पर विजय भी पा लेता है। अतः आस्रव भावना से साधक कार्मास्रवों को जानने पहचानने में निपुण होता है। फिर उन्हें रोकने का प्रयत्न भी करता है जिसे आगे 'संवर भावना' में बताया गया है। (८) संवर भावना : मुक्ति की ओर चरणन्यास
संवरयोग, जैन योग का एक बहत ही महत्त्वपू योग है। साधक इस संवर भावना के अनूचितन द्वारा संवरयोग की ही साधना करता है। वह आस्रवों को-कर्मी के आगमन को रोकता है। आस्रव से विपरीत प्रवृत्ति करके वह संवर करता है।' संवर के लिए वह सम्यक्त्व, विरति, अप्रमाद, अकषाय और अयोग की साधना करता है।
संवर की साधना वह दो रूपों में करता है। द्रव्यरूप से वह योगों को (मन-वचन-काय को), कषाय आदि को स्थिर रखता है और भावरूप से वह मन के संकल्पों-विकल्पों, आवेगों-संवेगों को रोकता है।
१ संवर की परिभाषा करते हुए श्री देवसेनाचार्य ने कहा है
रुन्धिय छिद्द सहस्से जल जाणे जह जलं तु णासवदि । मिच्छत्ताइ अभावे तह जीवे संवरो होइ । -बृहद् नयचक्र १५६
__ जिस प्रकार नाव के छिद्र रुक जाने से उसमें जल प्रवेश नहीं करता, उसी प्रकार मिथ्यात्वादि का अभाव हो जाने पर जीव में कर्मों का संवर होता है । संवर के मुख्य भेद ५ हैं-(१) सम्यक्त्व, (२) विरति, (३) अप्रमाद, (४) अकषाय (५) योगनिग्रह । -स्थानांग ५/२/४१८ तथा समवायांग ५
किन्तु इसके २० और ५७ भेद भी माने जाते हैं। (क) पाँच समिति, तीन गुप्ति, दस धर्म, बारह अनुप्रेक्षा, बाईस परीषहजय, और पांच चारित्र-- ये संवर के ५७ भेद हैं। -स्थानांगवृत्ति, स्थान १
(तत्त्वार्थ सूत्र ६/२) (ख) सम्यक्त्व, विरति, अप्रमाद, अकषाय, अयोग, प्राणातिपातविरमण, मृषावादविरमण, अदत्तादानविरमण, अब्रह्मचर्यविरमण, परिग्रहविरमण, श्रोत्रेन्द्रिय संवर, चक्षुरिन्द्रियसंवर, घ्राणेन्द्रियसंवर, रसनेन्द्रियसंवर, स्पर्शनेन्द्रियसंवर, मनसंवर, वचनसंवर, कायसंवर, उपकरणसंवर, सूचीकुशाग्रसंवर-ये २० भेद संवर के होते हैं। -प्रश्नव्याकरण, संवर द्वार तथा स्थानांग १०/७०६
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