SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 298
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भावनायोग साधना २२१ इस प्रकार साधक अनास्रव अथवा संवर की साधना करके कर्मबन्ध को रोकता है अन्तरिछद्रों को ढांकता है और मुक्ति की ओर अग्रसर होता है । (६) निर्जरा भावना : आत्मशुद्धि की साधना निर्जरा, आत्मशुद्धि की प्रक्रिया है । आत्मा के साथ जो कर्म बँधे हुए हैं, उनको आत्मा से दूर करना, झाड़ना, बन्धनमुक्त करना निर्जरा है । वह निर्जरा तप' के द्वारा की जाती है । इस भावना के अनुचितन में साधक निर्जरा के लक्षण, स्वरूप और साधनों के बारे में बार-बार चिन्तन-मनन करता है । इस चिन्तन से साधक की आत्मा में तप, दान, शील के प्रति आकर्षण बढ़ता है । तप करने की हृदय में भावना जगती है तथा उत्साह एवं साहस भी उत्पन्न होता है । इस आत्मिक साहस, उत्साह और भावना से भी कर्मों की निर्जरा होती है और जब वह तप के मार्ग पर चल पड़ता है, तप करने लगता है, तब तो वह सभी कर्मों से मुक्त होकर शुद्ध बन जाता है । इस प्रकार निर्जरा भावना आत्म शुद्धि का साधन बन जाती है और साधक इस भावना के द्वारा अपनी आत्मा की शुद्धि का प्रयास करता है । साधक में अदम्य साहस व तितिक्षा वृत्ति जागृत होती है । (१०) धर्म भावना : आत्मोन्नति की साधना धर्म, आत्मा की उन्नति का साधन है । धर्म से ही आत्मा को श्रेयस् की प्राप्ति होती है । धर्म ही प्राणी को संसार के दुःखों से उत्तम सुख में पहुँचाता है ।" वह धर्म अहिंसा, संयम और वही सर्वोत्तम मंगल है । बचाकर मुक्ति के तप रूप हैं और धर्मभावना के अनुचितन में साधक धर्म (केवलि प्रज्ञप्त धर्म ) के विविध पहलुओं का चिन्तन करता है तथा उससे आत्मा को भावित करता है | श्रुतधर्म तथा चारित्रधर्म के भेद-प्रभेद और लक्षणों तथा अहिंसा, संयम और तप आदि का चिन्तन करता है । इस चिन्तन से साधक की आत्मा में, उसके रग-रग में, आचार-विचार १ २ ३ तप का वर्णन 'तपोयोग' नामक अध्याय में किया गया है । धर्म कर्म निवर्हणं संसारदुःखतः सत्त्वान्यो धरत्युत्तमे सुखे । धम्मो मंगलमुक्किट्ठ, अहिंसा संजमो तवो । Jain Education International - रत्नकरंड श्रावकाचार, श्लोक २ - दशकालिक १/१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy