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________________ २२२ जैन योग : सिद्धान्त और साधना व्यवहार में सर्वत्र धर्म रम जाता है, उसकी आत्मा धर्म से भावित हो जाती है और उसका सम्पूर्ण जीवन ही धर्ममय बन जाता है । वास्तविक अर्थ में वह धर्मात्मा (धर्ममय आत्मा) बन जाता है । धर्म भावना से साधक धर्म के सूक्ष्म से सूक्ष्म रहस्य को हृदयंगम कर लेता है । उसके इस धर्ममय आचरण से उसके जीवन में सुख-शान्ति का सागर लहराने लगता है और उसकी आत्मिक उन्नति होती है । (११) लोक भावना : आस्था की शुद्धि साधक लोक भावना का अनुचिन्तन करते हुए षड्द्रव्यात्मक लोक का विचार करता है । जीव, अजीव, धर्म, अधर्म, आकाश, काल - इन छह द्रव्यों तथा उनके गुणों और पर्यायों पर विचार करता है । लोक की शाश्वतता, अशाश्वतता, इसके रचयिता अथवा स्वयं निर्मित, उसके संस्थान आदि बातों पर विचार करता है और फिर इस लोक में अपनी स्थिति पर चिन्तन करता है । इस संपूर्ण चिन्तन से साधक की आस्था शुद्ध हो जाती है, वह लोक के वास्तविक स्वरूप को समझ जाता है । उसकी जिनवचनों के प्रति श्रद्धा प्रगाढ़ हो जाती है । लोकानुप्रेक्षा द्वारा साधक को अपनी (आत्मा की ) अनादिकालीन लोक यात्रा का अन्त पाने की कुञ्जी प्राप्त हो जाती है, उसका आस्तिक्य भाव शुद्ध और दृढ़ हो जाता है । वह लोक के स्वीकार के साथ-साथ अपनी तथा अन्य जीवों और द्रव्यों की स्थिति भी स्वीकार करता है । अन्य जीवों के प्रति उसमें सहिष्णुता और कल्याणभावना जागृत होती है । यह कल्याणभावना स्वयं उसके कल्याण का भी साधन बनती है । (१२) बोधिदुर्लभ भावना : अन्तर्जागरण की प्रेरणा बोधि का अभिप्राय है - सम्यग्दर्शन ज्ञान - चारित्र की उपलब्धि । इसकी उपलब्धि बहुत ही कठिन है । इस भावना का अनुचितन करते हुए साधक, जीव की क्रमिक उन्नति पर विचार करता है । वह सोचता है - मेरा जीव अनादि काल से भव-भ्रमण कर रहा है । पहले कभी अव्यवहार राशि में था, फिर व्यवहार राशि में आया, अनन्त काल निगोद में ही गुजर गया, फिर नरक, तियंच की वेदनाएँ सहीं, असंख्यात काल तक एकेन्द्रिय रहा, फिर संख्यात काल द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय में गुजर गया, पंचेन्द्रिय बना तो मनरहित रहा, मनसहित भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
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