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भावनायोग साधना २२३ हुआ तो पश-पक्षी बन गया, नरक की वेदना भी सही। मनुष्य बना तो आर्यक्षेत्र, उत्तम कुल न मिला, मिल भी गया तो धर्म की ओर रुचि न हई, संयम में पराक्रम न किया। भाग्ययोग अथवा पुण्यबल से अब मुझे ये सब संयोग प्राप्त हो गये हैं तो अब मुझे मुक्ति की साधना में अपना संपूर्ण बल-वीर्यपराक्रम लगा देना चाहिए ।
इस प्रकार के चिन्तन से साधक को अन्तर जागरण को प्रेरणा प्राप्त होती है, उसका अन्तर हृदय जाग्रत हो जाता है और वह मुक्ति-मार्ग पर चल पड़ता है, मुक्त होने के लिए पूर्ण पुरुषार्थ करता है । वह बोधि और संबोधि को प्राप्त करता है।
इस प्रकार इन बारह अनुप्रेक्षाओं (भावनाओं) के चिन्तन-मनन द्वारा साधक अपनी वैराग्य भावना दृढ़ करता है ।
ज्ञान को जुगाली एक अपेक्षा से अनुप्रेक्षाओं के चिन्तवन को ज्ञान की जुगाली भी कह सकते हैं। जिस प्रकार गाय आदि पशु पहले तो घास आदि को उदरस्थ कर लेते हैं और फिर उस घास को शीघ्रता से और भली भाँति हजम करने के लिए एकान्त-शान्त स्थान पर बैठकर अवकाश के समय जुगाली करते हैं, इससे वह घास अच्छी तरह पच जाती है । उसी प्रकार साधक भी धर्मग्रंथों के स्वाध्याय तथा गुरु-उपदेश से प्राप्त ज्ञान को पहले तो श्रवण और चक्षु इन्द्रियों के माध्यम से ग्रहण कर लेता है और फिर शांत-एकान्त क्षणों में उस पर चिन्तनमनन करता है, स्मति पटल पर लाकर उस पर गहराई से विचार करता है। इस प्रक्रिया से गुरु-उपदिष्ट तथा स्वाध्याय से प्राप्त ज्ञान उसे हृदयंगम हो जाता है । अतः अनुप्रेक्षाओं को ज्ञान जुगाली भी कह सकते हैं।
वैराग्य भावनाएं भावनाओं के वर्गीकरण में द्वादश अनुप्रेक्षाओं को वैराग्य भावना कहा गया है। वैराग्य भावना कहने का कारण यह है कि इनके चिन्तन से साधक का वैराग्य भाव तीक्ष्ण, निर्मल एवं दृढ़ होता है। . योग साधना के लिए वैराग्य सर्वप्रथम और आवश्यक तत्त्व है । बिना वैराग्य के अध्यात्मयोग में साधक गति ही नहीं कर सकता । उसकी सम्पूर्ण गति-प्रगति वैराग्य की दृढ़ता और प्रकर्षता पर ही निर्भर होती है।
वैराग्यहीन योग तो बिना प्राण का शरीर-शव मात्र ही होता है। उस योगविद्या के माध्यम से साधक चमत्कारी सिद्धियाँ भले ही प्राप्त कर ले
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