SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 301
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२४ जैन योग : सिद्धान्त और साधना किन्तु मोक्षमार्ग की ओर उसकी गति हो ही नहीं सकती। सही शब्दों में ऐसा साधक अपनी आत्मा को पतन की ओर ही ले जाता है। अध्यात्मयोग के साधक के लिए वैराग्य अति आवश्यक और आधारभूत है। इसीलिए भावनायोग के नाम से अध्यात्मयोग साधना का एक अंग भी निर्धारित किया है, जिसमें द्वादश अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करके साधक अपने वैराग्य को और भी सुदृढ़ करता है । अनुप्रेक्षाओं के चिन्तन से लाम अनुप्रेक्षाओं के चिन्तन से वैराग्य भाव के दृढ़ होने के अतिरिक्त साधक को और भी कई लाभ होते हैं। उनमें से कुछ प्रमुख ये हैं (१) यथार्थता की अनुभूति-इन द्वादश अनुप्रेक्षाओं के चिन्तन से साधक को यथार्थता की स्पष्ट अनुभूति होती है। वह शरीर के-लोक के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर लेता है। अशरण भावना से उसे विश्वास हो जाता है कि धर्म के अतिरिक्त संसार में कोई भी शरण नहीं है। (२) मुर्छा और मलों की सफाई का अवसर-अनादिकालीन मिथ्या संस्कारों और कर्म-मलों के लगे रहने से आत्मा का ज्ञान-दर्शन-चारित्र संसाराभिमुखी और मलिन होता है । उस मल और मिथ्या संस्कारों को परिमार्जन करने का अवसर साधक को इन अनुप्रेक्षाओं के चिन्तन द्वारा प्राप्त होता है। संसार-सम्बन्धी उसकी मोह-मूर्छा का नाश होता है । अशुचि भावना ते उसका देहाध्यास छूट जाता है, संसार भावना से उसे संसार दुःखमय दिखाई देने लगता है। इसी प्रकार अन्य भावनाओं के चिन्तन से उसकी मूर्छा का नाश होता है। (३) मन की निर्मलता-मिथ्या-संस्कार, मोह-मूर्छा का नाश होने का परिणाम यह होता है कि साधक के मन में जो कलुषता थी उसका भी नाश हो जाता है, मन में उठने वाले आवेग-संवेगों के भाव और संकल्प-विकल्प उपशान्त हो जाते हैं । इसका परिणाम मन की निर्मलता होता है। साधक का मन ज्यों-ज्यों निर्मल होता है, उसमें वैराग्य भाव बढ़ता जाता है, उसकी आध्यात्मिक उन्नति होती है, उसकी आत्म-चेतना की धारा उन्नति के सोपानों पर चढ़ती जाती है । इस प्रकार द्वादश अनुप्रेक्षाओं के चिन्तन-मनन से साधक को अपरिमित लाभ होता है। यही कारण है कि गृहस्थ और गृहत्यागी-दोनों प्रकार के साधक अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करके आत्मिक उन्नति के प्रति सजग रहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002077
Book TitleJain Yog Siddhanta aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1983
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy