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८२ जैन योग : सिद्धान्त और साधना
मनीषी कुण्डलिनी जागरण जैसी दुष्परिणामकारी ( दुष्परिणामकारी इसलिए कि जिन साधकों की वासनाएँ क्षय नहीं हुई हैं, वे इस महाशक्ति का दुरुपयोग अपनी वासना तृप्ति और स्वार्थ सिद्धि के लिए करते हैं) शक्ति को प्राप्त करने का प्रयत्न कैसे करते ? यद्यपि उन्हें तेजोलेश्या शक्ति के रूप में कुण्डलिनी योग पूर्णतया ज्ञात था ।
आध्यात्मिक दृष्टि से जैन योग के भेद
आध्यात्मिक दृष्टि से योग के बीज तथा विचार प्राचीन जैन आगमों में यत्र-तत्र प्राप्त होते हैं। आचार्य हरिभद्र सूरि ने अपने ग्रन्थ योगबिन्दु में आध्यात्मिक योग का बहुत ही सुन्दर तरीके से क्रमबद्ध वर्णन प्रस्तुत किया है । वहाँ उन्होंने मोक्ष प्राप्ति के अन्तरंग साधन को धर्म-व्यापार कहा है तथा उस धर्म - व्यापार को योग बतला कर उसके पाँच भेद किये हैं- (१) अध्यात्म, (२) भावना, (३) ध्यान, (४) समता और (५) वृत्तिसंक्षय ।' पातंजलयोग के संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात नाम के दो योग इन्हीं पाँच भेदों के अन्तर्गत आ जाते हैं ।
(१) अध्यात्मयोग
जैन आगमों में मोक्षाभिलाषी आत्मा को अध्यात्मयोगी बनने की— योग से युक्त होने की प्रेरणा बार-बार दी गई है । इसका कारण यह है कि चारित्र-शुद्धि के लिए मुमुक्षु आत्मा को अध्यात्मयोग अनुष्ठान की नितान्त आवश्यकता होती है । यही कारण है कि आचार्य ने सर्वप्रथम अध्यात्मयोग का निर्देश मुमुक्षु साधक को दिया है ।
अध्यात्मयोग का लक्षण बताते हुए आचार्य ने कहा है
उचित प्रवृत्ति से अणुव्रत - महाव्रत से युक्त होकर चारित्र का पालन करने के साथ-साथ मैत्री आदि भावनापूर्वक आगम वचनों के अनुसार तत्त्वचिन्तन करना, अध्यात्मयोग है ।
१ अध्यात्मं भावना ध्यानं, समता वृत्तिसंक्षयः । मोक्षण योजनाद् योगः, एष श्रेष्ठो यथोत्तरम् ॥ (क) अज्झप्पजोगसुद्धा दाणे उवदिट्ठिए ठिअप्पा | (ख) अज्झप्पज्झाणजुत्ते ( अध्यात्मध्यान युक्त) व्याख्याकार ने इस सूत्र की व्याख्या की हैअध्यात्मनि आत्मानमधिकृत्य आत्मालंबनं ध्यानं चित्तनिरोधस्तेन युक्तः ।
३ औचित्याद्वृत्तयुक्तस्य वचनात् तत्त्वचिन्तनम् । मंत्र्यादिभाव संयुक्त मध्यात्मं
तद्विदो विदुः ॥
- योगबिन्दु ३५८
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— योगबिन्दु ३१
- सूत्रकृतांग १ / १६ / ३
- प्रश्नव्याकरण ३, संवरद्वार
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