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जन योग का स्वरूप ८३ यहाँ अध्यात्मयोग के तत्त्वचिन्तनरूप लक्षण में दिये गये चार विशेषण-(१) औचित्य (सम्यग्बोधपूर्वक), (२) वृतसमवेतत्व, (३) आगमानुसारित्व और (४) मैत्री आदि भावना संयुक्तत्व, बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं । इन पर विचार करने से अध्यात्म का वास्तविक रहस्य भलीभाँति स्पष्ट हो जाता है।
मैत्री आदि चार भावनाओं से भावित पुरुष अध्यात्मयोग की भावना को और भी अधिक दृढ़ करता है।
(१) मैत्री भावना द्वारा वह अपने से अधिक सुखी व्यक्तियों के प्रति ईर्ष्या भाव का त्याग करता है।
(२) करुणा भावना से वह दीन-दुःखी प्राणियों के प्रति उपेक्षा नहीं करता, वरन् उनको यथाशक्ति सहयोग देकर उनके कष्ट को मिटाने का प्रयास करता है, उनके साथ सहानुभूति रखता है।
(३) मुदिता अथवा प्रमोद भावना से उसका पुण्यशाली जीवों से द्वाष हट जाता है तथा गुणियों के प्रति उसके प्रशंसा भाव जागते हैं, बह गुणानुरागी बनता है, गुण ग्रहण करता है।
(४) उपेक्षा अथवा माध्यस्थ्य भावना द्वारा वह पापी, दुष्ट, दुराग्रही जीवों पर से राग-द्वष हटा लेता है।
इन चार भावनाओं के अनुशीलन से अध्यात्मयोगी साधक की आत्मा में ईर्ष्या का नाश, दया का संचार, गुणानुराग तथा राग-द्वष को निवृत्ति सम्पन्न होती है और वह अध्यात्मयोग का सम्यक् प्रकार से आचरण करने में सक्षम बनता है।
_इस प्रकार अध्यात्मयोग' के स्वरूप को समझकर जो व्यक्ति उसे आत्मसात् कर लेता है, उसके पापों का नाश, वीर्य का उत्कर्ष, चित्त की प्रसन्नता, वस्तुतत्त्व का बोध तथा आत्मानुभवरूप अमृत की प्राप्ति होती है।'
यह अध्यात्मयोग की फलश्रुति है। १ (क) सुखीयां दुखितोपेक्षां पुण्यद्वषमर्मिषु ।
रागद्वषो त्यजेन्नेता लब्ध्वाऽध्यात्म समाचरेत् ॥७॥ -योगभेदद्वात्रिंशिका (ख) मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणांभावनातश्चित्त प्रसादनं ।
-पातंजल योगसूत्र १/३६ २ अतः पापक्षयः सत्वं शीलं ज्ञानं च शाश्वतम् । तथानुभवसंसिद्धममृतं ह्यदि एव तु ॥
-योगबिन्दु ३५९; तथा योगभेदद्वात्रिंशिका ८
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