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जैन योग : सिद्धान्त और साधना
(२) भावनायोग
भावना योग का माहात्म्य आगमों में भी बताया गया है। सूत्रकृतांग सूत्र में कहा गया है जिस साधक की आत्मा भावनायोग से शुद्ध हो गई है, वह साधक जल में नौका (नाव) के समान है। और जिस प्रकार नाव को तट पर विश्राम प्राप्त होता है उसी प्रकार उस साधक को भी सभी प्रकार के दुःखों एवं कष्टों से छुटकारा प्राप्त हो जाता है तथा उसे परम शान्ति का का लाभ होता है।'
भावनायोग का लक्षण बताते हुए कहा गया है-प्राप्त हुए अध्यात्मयोग का बुद्धिसंगत (विचारपूर्वक) बार-बार अभ्यास करना, चिन्तन करनाभावनायोग है।
यह निश्चित है कि समझे हुए पदार्थ का जब बार-बार चिन्तन किया जाता है तभी वह मन-मस्तिष्क में स्थिर रह सकता है। इसी प्रकार अध्यात्मतत्त्व को भी हृदय में स्थिर रखने के लिए भावनाओं का चिन्तन अति आवश्यक है। वस्तुतः अध्यात्मयोग का बहुत कुछ तत्त्व भावनायोग पर ही निर्भर है।
जैन आगमों में मोक्ष-प्राप्ति के चार मार्ग बताये गये हैं—दान, शील, तप और भाव । इन सब में भी भाव ही अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। भाव के बिना दान, शील और तप भी कार्यकारी नहीं हो पाते । सब क्रियाएँ फलहीन रह जाती हैं।
पतंजलि ने भी समाधि-प्राप्ति के साधन रूप उपादेय अभ्यास के बारे में भी यही बात कही है।
भावना के लिए आगमों में अणुवेक्खा (अनुप्रेक्षा) शब्द भी व्यवहृत हुआ है, जिसका अर्थ है बार-बार देखना-चिन्तन-मनन और अभ्यास करना ।
अध्यात्मयोगी के लिए ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वैराग्य-ये पाँच विषय भावना के हैं। इन विषयों की भावना करने से वैभाविक संस्कारों (कर्मजन्य उपाधियों) का विलय, अध्यात्म तत्त्व की स्थिरता और आत्मगुणों का उत्कर्ष होता है। १ भावणाजोग सुद्धप्पा, जले णावा व आहिया ।
णावा व तीर सम्पन्ना, सव्वदुक्खा तिउट्टई ।। -सूत्रकृतांग १/१५/५ २ अभ्यासो बुद्धिमानस्य, भावना बुद्धिसंगतः।
-योगभेदद्वात्रिंशिका ३ स तु दीर्घकालनरन्तर्यसत्कारासेवितो दृढभूमिः । -पातंजल योगसूत्र १/१४
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