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जैन योग का स्वरूप
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भावनायोग के सन्दर्भ में बारह भावनाओं का भी वर्णन जैन शास्त्रों प्राप्त होता है । वे बारह भावना हैं
(१) अनित्य भावना - - इसमें जीवन की अणभंगुरता - अनित्यता का चिन्तन किया जाता है ।
(२) अशरण भावना - इस भावना में साधक यह चिन्तन करता है कि संसार में धर्म के सिवाय अन्य कोई भी व्यक्ति या वस्तु प्राणी के लिए शरणभूत नहीं है ।
(३) संसार भावना – इसमें संसार की स्थिति और उसके दुःखमय स्वरूप का चिन्तन साधक करता है ।
(४) एकत्व भावना - इस भावना द्वारा साधक यह चिन्तन करता है कि वह अकेला ही जन्म ग्रहण करता है और अकेला ही मरता है, उसका कोई साथी नहीं है |
इस भावना का आधार है - तुममेव तुमं मित्तं किं बहिया मित्तमिच्छसि ! हे आत्मन् ! तुम्हीं तुम्हारे मित्र हो, बाहर के किस मित्र को इच्छा करते हो, अर्थात् किसी भी मित्र या साथी की इच्छा मत करो ।
(५) अन्यत्व भावना – यह भावना साधक के हृदय में भेद विज्ञान जगाने वाली है । साधक यह चिन्तन करता है कि वह सबसे अलग है, जहाँ शरीर भी अपना नहीं, वहाँ अन्य परिजन स्त्री -पुत्र -धन आदि अपने कैसे हो सकते हैं ।
(६) अशुचि भावना - इस भावना में साधक शरीर की अशुचिता का चिन्तन करता है । इसके परिणामस्वरूप उसका अपने शरीर पर से ममत्व - भाव छूट जाता है ।
(७) आस्रव भावना - इस भावना द्वारा साधक कर्मों के आस्रव का चिन्तन करता है, फलस्वरूप वह कर्मास्रव को रोकने के लिए प्रयत्नशील होता है ।
(८) संवर भावना - इस भावना द्वारा साधक कर्मों के आस्रव को रोकता है ।
(६) निर्जरा भावना - साधक इस भावना द्वारा अपने पूर्व संचित कर्मों की निर्जरा करता है, उनका क्षय अथवा नाश करता है ।
(१०) लोक भावना - इस भावना द्वारा साधक चिन्तन करता है कि मेरा आत्मा अनादि काल से इस लोक में भ्रमण कर रहा है, अब मुझे ऐसा
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